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गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

तन के उत्तरी छोरों पर

तन के उत्तरी छोरों पर 
पछीटती माथे की रेखा को 
वो गुनगुना रही है लोकगीत 

जी हाँ ....... लोकगीत 
दर्द और शोक के कमलों से भरा 

सुन रहा है ज़माना …… सिर्फ गुनगुनाना 
अंदर ही अंदर घुलती नदी का 

बशर्ते कोई पढ़ना जानता हो तो 
भौहों के सिमटने और फैलने के अंतराल में भी बची होती हैं वक्र रेखाएं 

आदि काल से 
परम्परागत रूप से 
मन के स्यापों पर रोने को नहीं है चलन रुदालियों को बुलाने का ………

3 टिप्‍पणियां:

Manoj Kumar ने कहा…

सुन्दर रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !

Unknown ने कहा…

बेहतरीन

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

kavita me dhaar badh rahi hai