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रविवार, 30 नवंबर 2014

सोच को पछीटते हुए

सोच को पछीटते हुए कहाँ ले जाऊँ 
मैं कहाँ हूँ और कहाँ नहीं 
आखिर कब तक खुद से मुखातिब रहूँ 
उम्र तो गुजरी चाकरी में 
मगर इक सोच हो जाती है काबिज कभी कभी

सबकी ज़िन्दगी में अवकाश होते हैं 
और एक मैं हूँ 
बिना अवकाशप्राप्त सर्वसुलभ कामगार 

उठाने लगी है सिर एक चाहत
चाहिए मुझे भी एक अवकाश 
हर जिम्मेदारी और कर्तव्य से 
हर अधिकार और व्यवहार से 
हर चाहत और नफ़रत से 
ताकि जी सकूँ एक बार कुछ वक्त अपने अनुसार 
जहाँ न कोई फ़िक्र हो
एक उन्मुक्त पंछी से पंख पसारे उड़ती जाऊँ ,बस उड़ती जाऊँ

क्या संभव होगा कभी ये मेरे लिए 
या चिता पर लेटने पर ही होता है एक स्त्री को नसीब पूर्ण अवकाश …… सोच में हूँ !!!


(चित्र साभार : आरती वर्मा इस चित्र ने लिखने को प्रेरित किया )

सोमवार, 17 नवंबर 2014

क्योंकि अपराधी हो तुम..........

जो स्त्रियाँ हो जाती हैं ॠतुस्त्राव से मुक्त 
पहुंच जाती हैं मीनोपॉज की श्रेणी में 
फ़तवों से नवाज़े जाने की हो जाती हैं हकदार 

एक स्त्री में स्त्रीत्व होता है सिर्फ 
ॠतुस्त्राव से मीनोपॉज तक 
यही है उसके स्त्रीत्व की कसौटी 
जान लो आज की परिभाषा 

नहीं रहता जिनमे स्त्रीत्व जरूरी हो जाता है 
उन्हें स्त्री की श्रेणी से बाहर निकालना 
अब तुम नहीं हो हकदार समाजिक सुरक्षा की 
नहीं है तुम्हारा कोई औचित्य
इच्छा अनिच्छा या इज्जत  
नहीं रहता कोई मोल 
बन जाती हो बाकायदा महज संभोग की वो वस्तु 
जिसे नहीं चीत्कार का अधिकार 
फिर कैसे कहती हो 
ओ मीनोपॉज से मुक्त स्त्री 
हो गया तुम्हारा बलात्कार ?

आज के प्रगतिवादी युग में 
तुम्हें भी बदलना होगा 
नए मापदंडों पर खरा उतारना होगा 
स्वीकारनी होगी अपनी स्थिति 
स्वयंभू हैं हम 
हमारी तालिबानी पाठशाला के 
जहाँ फतवों पर चला करती हैं 
अब न्याय की भी देवियाँ 


क्योंकि 
अपराधी हो तुम ....... स्त्री होने की 
उससे इतर 
न तुम पहले थीं 
न हो 
न आगे होंगी 
फिर चाहे बदल जाएं 
कितने ही युग 
नहीं बदला करतीं मानसिकताएं 


स्त्रीत्व की कसौटी 
फतवों की मोहताजग़ी 
बस यही है 
आज की दानवता का आखिरी परिशिष्ट 


गुरुवार, 6 नवंबर 2014

खामोशियों के पाँव में घुँघरू नहीं होते

खामोशी का बीज वक्तव्य सिर्फ़ इतना था 
कोई मुझसे इतर मुझमें पैठा था 
जब भी झाँका ख्याले अंजुमन में 
सिर्फ़ चुप्पियों का कोलाहल था  

दरकने को न जमीं थी न सुराख़ को आस्माँ 
मेरी ख़ामोशियों का कोई राज़-ए -खुदा न था 

जब दिन की हँसी रातों के गुलाब खिलने का आसार था 
तब अश्कों के पलकों पर ठहरने के मौसम खुशगवार था 
ये जानकर खामोशियों के पाँव में घुँघरू नहीं होते 
यूँ इक रूह के भटकने का तमाम इंतजाम था 

शायद तभी ज़िद पर अडी खामोशियाँ किसी रुत की मोहताज़ नहीं होतीं ……