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रविवार, 28 दिसंबर 2014

गिरहकट

कितने धीमे से काटते हो गिरह 
मालूम चलने का सवाल कहाँ 
चतुराई यही है 
और बेहोशी का दंड तो भोगना ही होता है 

होश आने तक 
ढल चुकी साँझ को 
कौन ओढ़ाए अब घूंघट ?

एक मुश्किल सवाल बन सामने खड़े हो जाना 
यही है तुम्हारा अंतिम वार 
जिससे बचने को पूरी शक्ति भी लगा लो अब चाहे 
काटना  नियति है तुम्हारी 

धीरे धीरे इस तरह  रिता देना 
कि बूँद भी न शेष बचे 
जानते हो न 
खाली कुओं से प्रतिध्वनियाँ नहीं आया करतीं 

कितने बड़े गिरहकट हो तुम ............ ओ समय !!!

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-12-2014) को पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कविता रावत ने कहा…

खाली कुओं से प्रतिध्वनियाँ नहीं आया करतीं
..सच कहा ..सुनता फिर कौन है ....
बहुत बढ़िया