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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

बेमुरव्वत!

आने वाला आता है जाने वाला जाता है
दस्तूर दुनिया का हर कोई निभाता है

कोई खार बन तल्ख़ ज़ख्म दे जाता है
कोई यादों में गुलाब बन खिल जाता है

बेमुरव्वत! इक फाँस सा सीने में धंसा जाता है
उम्र भर का लाइलाज दर्द जो दिए जाता है

गिले शिकवों का शमशानी शहर बना जाता है
जब भी यादों में बिन बुलाये चला आता है

यही जाते साल को नज़राना देने को जी चाहता है
फिर न किसी मोड़ पर तू ज़िन्दगी के नज़र आना

मुझे मुझसे चुरा लिया बेखुदी में डुबा दिया
अब किसी पर न ऐतबार करने को जी चाहता है


गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

बेखुदी के शहर में

इश्क का लबालब भरा प्याला था जब
उमंगों की पायल अक्सर छनछनाया करती थी
छल्का करता था गागर से इश्क का मौसम बेपरवाह सा

मगर अब बेखुदी के शहर में लगी आग में
झुलस गयी है मेरे इश्क की गुलाबी रंगत
मातमपुर्सी को नहीं है रूह के पास कोई साजो सामान

कौन सा सवाया लगाऊँ
किस पीर फ़क़ीर से मुनादी कराऊँ
कि राज-ए-उल्फ़त में कतरा - कतरा बिखरा है जूनून मेरा

ओ बेखबर शहर के खुमार
यूँ अक्सर खुद को घटते देख रही हूँ मैं ...........

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

कत्ले आम का दिन था वो

 
 
कत्ले आम का दिन था वो
अब सन्नाटे गूंजते हैं
और खामोशियों ने ख़ुदकुशी कर ली है

तब से ठहरी हुई है सृष्टि
मेरी चाहतों की
मेरी हसरतों की
मेरी उम्मीदों की

अब
रोज बजते शब्दों के झांझ मंजीरे
नहीं पहुँचते रूह तक

तो क्या खुदा बहरा हो गया या मैं
जिंदा सांसें हैं या मैं
मौत किसकी हुई थी उस दिन
नहीं पता
मगर रिश्ता जरूर दरक गया था

और सुना है
दरके हुए आईने को घर में रखना अपशकुन होता है