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शनिवार, 30 जून 2018

'ठहरना एक खामोश क्रिया है'

मेरी ये कविता शनिवार 16 जून को जयपुर से प्रकाशित होने वाले पेपर 'बुलेटिन टुडे' में प्रकाशित कविता हुई और आज @kusum kapoor जी के पति सुरेन्द्र नाथ कपूर जी द्वारा उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया गया ........दोनों साथ में लगा रही हूँ :) :) 


ठहरना एक खामोश क्रिया है
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मुझे 
न कहीं जाना है न आना है 
मुझे तो यहीं कहीं ठहरना है 
जैसे ठहरती है धूप आँगन में 
जैसे ठहरती है उम्मीद मन में 
जैसे ठहरती है आशा जीवन में 

नैराश्य के गह्वरों से 
दूर बनाया है मैंने अपना आशियाना 
यहाँ सुबह है 
सांझ है 
हवा है 
बारिश है 
मिटटी की सौंधी खुशबू है 
कण कण में व्याप्त है जीवन 

जीवन वो नहीं जो जीया जा रहा है 
जीवन वो है जिसने बताया तुम्हें 
कहाँ ठहरना है
कहाँ छोडनी है अपनी छाप 
कि 
कायनात के अंत के बाद भी 
बचे रहें मेरी मुस्कराहट के बीज 
कि 
रक्तबीज सी उगूँ 
और कण कण में बिखेर दूँ 
खिलखिलाहट का बीज 
हर चेहरे की मुस्कराहट के ताबीज में मिलूँ 
तो जान लेना 
मैंने जान लिया है ठहरना 
मैंने पा लिया है अपना होना 
शंखनाद सी गूंजूं और हो जाए ज़िन्दगी मुकम्मल 

जहाँ आने और जाने में शोर है 
वहीं ठहरना एक खामोश क्रिया है 
जो किसी प्रतिक्रिया की मोहताज नहीं 
करके आने जाने से मुक्त ...मुझे ठहरने दो 
क्योंकि 
मुसाफिर नहीं जो दो घूँट जल पी जल दूँ गंतव्य पर ...


Kusum Kapoor इस सुंदर रचना का अनुवाद।

I have neither to go nor come 

from anywhere.

Iam
like sunshine which stays in courtyard,
hope,which dwells in heart and life.

I have made my abode
far away from the realm of despair.
Where,
there is
dawn
evening
breeze
rain 
sweet fragrance of earth
and
Life in every atom.

Life is not just being alive

.
Life is,what tells you where to stay
and
where to leave your footprints.

So that,
the seeds of my smile may stay alive
And sprout all over
in everybody's laughter.

It is then,you realize,
that 
you have found your destination and
Your self.

I would like to sound like a counch shell
and
complete the meaning of life.

Coming and going
produce noise
whereas stillness is Silence
free from all reactions
and the cycle of coming and going.

Let me stay.

I am not a traveller
who only stops on way
to take a gulp of water.

मंगलवार, 19 जून 2018

हसीनाबाद मेरी नज़र में



उपन्यास लेखन एक साधना है. सिर्फ शब्दों का खेल भर नहीं. ऐसे में जब कोई पहला उपन्यास लिखता है तो पाठकों को उम्मीद होती है कुछ नया मिलेगा. पहले उपन्यास में लेखक अपने आस पास के घटनाक्रमों से प्रभावित होता है तो उनका आना लाजिमी है. जरूरी नहीं वो उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा हों या उनकी दास्ताँ. पिछले दिनों कथाकार गीता श्री का उपन्यास ‘हसीनाबाद’ पढ़ा.
मुख्य पात्र गोलमी और उसकी माँ सुन्दरी हैं. जिन्हें लेखिका ने बहुत खूबसूरती से कथानक में ढाला है. ठाकुरों की निजी संपत्ति बनी सुंदरी के जीवन और उसके एक निर्णय से बदलती ज़िन्दगी का चिटठा है उपन्यास. बेशक खुद का जीवन कैसा ही बीते एक माँ यही चाहती है उसके बच्चे उसके जैसा जीवन जीने को विवश न हों. उसी सन्दर्भ में उठाया गया उसका कदम गोलमी के भविष्य की नींव बनता है. नाचना माँ का पेशा था तो माँ चाहे कितना ही दूर रखना चाहे कुछ गुण औलाद में जींस के माध्यम से पहुँच ही जाते हैं और ऐसा ही यहाँ होता है. जितना नाच गाने से सुंदरी दूर रखना चाहती है उतना ही गोलमी प्रतिरोध करती है और अपनी मनमानी भी क्योंकि कहीं न कहीं पिता के गुण भी आने ही होते हैं और फिर ठाकुरों में तो मनमानी कूट कूटकर भरी होती है.
ज़िन्दगी कभी सीधी राह नहीं चलती. उसकी सर्पीली डगर पर रपटन होती है जिसका पता इंसान को कदम कदम पर होता है. उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे लेखिका गोलमी के माध्यम से एक आग को रेखांकित कर रही हो जैसे खुद उस आग पर चल रही हों. जैसे लेखिका स्त्री की स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत करती हैं वैसा ही चरित्र यहाँ पेश किया है. बेशक इसे कोई राजनितिक उपन्यास कह दे लेकिन आधे से ज्यादा उपन्यास तक तो राजनीती आई ही नहीं. बल्कि राजनीती के दखल ने गोलमी को ज़िन्दगी को समझने की समझ दी. विभिन्न मोड़ों से गुजरते हुए गोलमी को अपने परायों का भी पता चलता है तो ज़िन्दगी की हकीकतों का भी. सत्ता कितनी निरंकुश होती है उसका भी आभास होता है. खुद को ख्याति के आसमान पर देखने की चाह कैसे विभिन्न मोड़ों से गोलमी को गुजारती है और हकीकत का अक्स दिखाती है, उसी का चित्रण है हसीनाबाद, एक बदनाम बस्ती से राजनीती तक का सफ़र .
उपन्यास पढ़ते हुए कई जगह कुछ आभास हुए जिन्होंने कहीं तुलनात्मक अध्ययन को मजबूर किया तो कहीं सोचने को. पिछले दिनों ही मैत्रेयी पुष्पा का ‘इदन्मम’ पढ़ कर चुकी वहां भी मंदा और उसकी दादी और कुसुमा थे तो गाँव के जीवन की दुश्वारियों के साथ संघर्ष का सफ़र जिसमें भी राजनीती का दखल ऐसे ही होता है और फिर अंत में हाथ खाली ही रह जाते हैं, जाने कितना कुछ खोना पड़ जाता है मंदा को. फिर से संघर्ष को आमंत्रित कर देती है उसकी ज़िन्दगी......ऐसा ही कुछ हसीनाबाद में देखने को मिला. फर्क बस बदनाम बस्ती का था. वर्ना दांवपेंच और राजनीती ने ऐसा ही आकार लिया.
इसके अलावा लेखिका ने गोलमी के चरित्र को ऐसा लगा जैसे कई खाँचों में बांधना चाहा और पढ़ते हुए लगा जैसे कहीं स्मृति ईरानी का चेहरा सामने आ रहा है तो कहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल का. जो घटनाक्रम दिखाया है वो कहीं न कहीं इन्हीं दोनों नेताओं का चित्र सामने खींचता है. अब लेखिका क्योंकि स्वयं पत्रकार रही हैं तो राजनीति की बहुत जानकार भी रही हैं तो राजनितिक दांवपेंचों को बखूबी प्रयोग किया है. अच्छी खासी उठापटक के बाद भी लेखिका ने इदन्मम की तरह फिर संघर्ष की तरफ वापस मोड़ दिया गोलमी को, तोड़ दिया उसका मतिभ्रम. मानो कहना चाहती हों जीवन यदि सुखमय जीना हो तो अपनी भूमि पर ही आप जी सकते हैं, दूर के ढोल सुहावने ही होते हैं उस पर राजनीती तो ऐसा कीचड है जिसमे कमल नहीं खिला करते. यदि आपको अपनी पहचान बनानी है तो आपके लिए ये सड़क बंद है. नृत्य को आकाश की ऊंचाई तक ले जाने की उसकी चाह कहाँ से कहाँ ले गयी, कितना कुछ खोकर उसने हारकर जीवन का वास्तविक अर्थ समझा. वहीँ लेखिका खुद लोक की पैरोकार रही हैं तो गोलमी के माध्यम से लोक और संस्कृति को बचाने की कवायद को खूबसूरती से बयां किया है.
अधूरे सपने, टूटी ख्वाहिशों का नाम ही है जैसे ज़िन्दगी मानो यही निचोड़ निकल कर आता है उपन्यास का. वहीँ कुछ मुद्दे लेकर चलीं लेखिका मगर उन्हें कोई मोड़ न देकर अधूरा ही छोड़ दिया जिसका उत्तर एक पाठक जानना चाहता था जैसे रमेश, गोलमी का भाई, जिसे सुंदरी हसीनाबाद ही छोड़ आती है जो नागवार गुजरता है क्योंकि कोई भी माँ अपने दोनों बच्चों में फर्क नहीं करना चाहेगी. उसके लिए तो दोनों ही बच्चे उसकी दो आँख होते हैं मगर यहाँ सुंदरी को सिर्फ गोलमी की चिंता है कि कल वो भी सिर्फ ठाकुरों के भोग की वस्तु न बनकर रह जाए मगर उसने ये नहीं सोचा कि रमेश का क्या होगा? क्या वो भी ठाकुरों का लठैत बनकर ही नहीं रह जाएगा? क्या उसका जीवन ठाकुर की निजी मिलकियत बनकर नहीं रह जायेगा? वो तो ठाकुर ने ऐसा कुछ किया नहीं वर्ना हो सकता था सुन्दरी के भागने का बदला वो रमेश से उम्र भर लेता........संभावनाएं कई उठती हैं लेकिन लेखिका ने बीच बीच में रमेश और ठाकुर सजावल सिंह के पात्रों को तो माध्यम जरूर बनाया लेकिन वहीँ रमेश को अंत तक पता न चलने दिया अपना और गोलमी का रिश्ता बल्कि मिली भी नहीं उससे, देखा भी नहीं उसे, इतने आस पास होते हुए भी...यह खटकता है. लेखिका चाहती तो यहाँ पात्रों को खुला छोड़ सकती थीं और वो अपनी दुनिया बना सकते थे मगर लेखिका ने पात्रों की नकेल अपने हाथों में रखी तो पात्र लेखिका के हाथों की कठपुतली बने चलते चले क्योंकि लेखिका को पता था उसे क्या अंत देना है.
पहला उपन्यास पहले पहले प्यार की तरह होता है और लेखिका का वो प्यार उनके लेखन में झलक रहा है. खूबसूरत भाषा शैली से सजा उपन्यास पाठक को बांधे रखता है और वो जानना चाहता है आखिर गोलमी कौन सा आकाश अपने लिए चुनती है. रोचकता बराबर बनी रहती है. लेखिका को पहले उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं....
बस वाणी प्रकाशन से उपन्यास आया है तो उसमें प्रूफ की गलतियाँ थोडा खटकती हैं जिसके लिए प्रकाशन को ध्यान देना चाहिए था.