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गुरुवार, 17 जुलाई 2014

वहाँ दहशत के आसमानों में सुराख नहीं हुआ करते



अपने समय की विडंबनाओं को लिखते हुए 
कवि खुद से हुआ निर्वासित 
आखिर कैसे करे व्यक्त 
दिल दहलाते खौफनाक मंजरों को 
बच्चों की चीखों को 
अबलाओं की करुण पुकारों को 
अधजली लाशों की शिनाख्त करते 
बच्चों बड़ों के दहशतजर्द 
पीले पड़े पत्तों से चेहरों को 
रक्तपात और तबाही की दस्तानों को 
किस शब्दकोष से ढूँढे 
शब्दों की शहतीरों को 
जो कर दे व्यक्त 
अपने समय की नोक पर रखी 
मानसिकता को 

एक भयावह समय में जीते 
खुद से ही डरते मानव के भयों को 
आखिर कैसे किया जा सकता है व्यक्त 
जहाँ सत्ता और शासन का बोलबाला हो 
मानवता और इंसानियत से 
न कोई सरोकार हो 
मानवता और इंसानियत के 
जिस्मों को तार तार कर 
स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा रही हों 
वहाँ खोज और खनन को 
न बचते हथियार हैं 
फिर कैसे संभव है 
कर दे कोई व्यक्त अपने समय को 

मुल्ला की बांग सा आह्वान है 
जलती चिताओं से उठाते 
जो मांस का टुकड़ा 
गिद्धों के छद्मवेश में 
करते व्यापार हों 
कहो उनके लिए कैसे संभव है 
हाथ में माला पकड़ राम राम जपना 
स्वार्थ की वेदी पर 
मचा हर ओर हाहाकार है 
बच्चों का बचपन से विस्थापन 
बड़ों का शहर नगर देश से विस्थापन 
बुजुर्गों का हर शोर की आहट से विस्थापन 
मगर फिर भी चल रहा है समय 
फिर भी चल रहा है संसार 
फिर भी चल रही है धड़कन 
जाने बिना ये सत्य 
वो जो ज़िंदा दिखती इमारतें हैं 
वहां शमशानी ख़ामोशी हुंकार भरा करती है 
मरघट के प्रेतों का वास हुआ हो जहाँ 
सुकूँ ,अपनेपन , प्यार मोहब्बत की 
जड़ों में नफरत के मट्ठे ठूंस दिए गए हो जहाँ 
कहो कैसे व्यक्त कर सकता है 
कोई कवि अपने समय की वीभत्सता को महज शब्दों के मकड़जाल में  

कैसे संभव है मासूमों के दिल पर पड़ी 
दहशत की छाप को अक्षरक्षः लिखना 
जाने कल उसमे क्या तब्दीली ले आये 
काली छाया से वो मुक्त हो भी न पाये 
जाने किसका जन्म हो जाए 
एक और आतंक के पर्याय का 
या दफ़न हो जाए एक पूरी सभ्यता डर के वजूद में 
फिर कैसे संभव है 
कवि कर सके व्यक्त 
अपने समय के चीरहरण को 
जहाँ निर्वसना धरा व्याकुल है 
रक्त की कीच में सनी उसकी देह है 

ओह ! मत माँगो कवि से प्रमाण 
मत करो कवि का आह्वान 
नहीं नहीं नहीं 
नहीं कर सकता वो शिनाख्त 
वक्त की जुम्बिश पर 
थरथरायी आहों की 
जहाँ स्त्रियों की अस्मत महज खिलवाड़ बन रह गयी हो 
नहीं मिला सकता निगाह खुद से भी 
फिर भला कैसे कर सकता है 
व्यक्त अपने समय की कलुषता को 
खिलखिलाती किलकारियों का स्वप्न 
धराशायी हुआ हो जहाँ 
सिर्फ मौत का तांडव 
अबलाओं बच्चों का रुदन 
छलनी हृदय और शमशानी खामोशी 
अट्टहास करती हो जहाँ 
वहां कैसे संभव है 
व्यक्त कर सके कवि 
अपने समय को कलम की नोक पर 


रुक जाती है कवि की कलम 
समय की नोक पर 
जहाँ रक्त की नदियाँ 
तोड़कर सारे बाँध बहा ले जा रही हैं 
एक पूरी सभ्यता को 
जहाँ नही दिख रहा मार्ग 
सिर्फ क्षत विक्षत लाशों के अम्बार से पटी 
सड़कों के कराहने का स्वर भी 
डूब चुका है स्वार्थपरता की दुन्दुभियों में 
स्त्री पुरुष बाल बच्चे बुजुर्ग 
नहीं होती गिनती जिनकी इंसान होने में 
मवेशियों से दड़बों में कैद हों जैसे 
वहाँ कैसे संभव है 
बन्दूक की नोक पर संवेदना का जन्म 
जहाँ सिर्फ लोहा ही लोहा पिघले सीसे सा सीने में दफ़न हो 
फिर बोको हरम  हो , ईराक हो , फिलिस्तीन , गाज़ा या नाइजीरिया 
दहशत के आसमानों में सुराख नहीं हुआ करते 
फिर कैसे संभव है 
व्यक्त कर सके कवि अपने समय को अक्षरक्षः 

वीभत्स सत्यों को 
उजागर करने का हुनर 
अभी सीख नहीं पायी है कवि की कलम 
आखिर कैसे 
इंसानियत के लहू में डूबकर कलम 
लिखे दहशतगर्दी की काली दास्ताँ 

एक ऐसे समय में जीते तुम 
नहीं हो सकते मनचाहे मुखरित ....   ओ कवि !!!


8 टिप्‍पणियां:

Rajendra kumar ने कहा…

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (18.07.2014) को "सावन आया धूल उड़ाता " (चर्चा अंक-1678)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

देवदत्त प्रसून ने कहा…

अच्छी प्रगतिवादी रचना !

देवदत्त प्रसून ने कहा…

एक अच्छी प्रगतिवादी रचना !

Anita ने कहा…


एक भयावह समय में जीते
खुद से ही डरते मानव के भयों को
आखिर कैसे किया जा सकता है व्यक्त

मन को झकझोरती प्रभावशाली पंक्तियाँ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मार्मिक प्रस्तुति।

Unknown ने कहा…

एकदम सटीक लिखा सबके अपने अपने स्वार्थ हैं मानवीयता शायद नदारत

देवदत्त प्रसून ने कहा…

बहुत अच्छी रचना !

देवदत्त प्रसून ने कहा…

बहुत अच्छी रचना !