बेबसी के कांटे जब आँचल से उलझते हैं
हम और उन पर पाँव रख रख के चलते हैं
जुबाँ पर रख के तल्खियों के स्वाद
अजनबियत का ओढ लिबास संग संग चलते हैं
जाने किसे दगा देते हैं जाने किससे दगा खाते हैं
हम बन के इक नकाब जब चेहरों पे पडते हैं
खानाबदोशी के इकट्ठे करके सब सामान
उनकी अजनबियत को झुक झुक सलाम करते हैं
कैफियत दिल की न पूछ अब जालिम
रोज सिज़दे में सिर झुका जहाँ इबादत करते हैं
खुदा न बनाया न बुत ही कोई सजाया
यूँ उनकी याद के ताजमहल को गले लगाया करते हैं
7 टिप्पणियां:
वाह क्या बात है
खानाबदोशी के इकट्ठे करके सब सामान
उनकी अजनबियत को झुक झुक सलाम करते हैं
...वाह..बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
बेहद संजीदा भाव
badhiya kavita
itne achchhe vichar.. keep it up pl .
itne khoo6surat vichaar.. keep it up.
Bahut sunder gahare bhaaw !!
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