तेरी याद की सडक
कभी खुरदुरी तो कभी सपाट
और मैं
कभी चलती हूँ
कभी दौडती हूँ
तो कभी ठहर जाती हूँ
किसी सडक किनारे बने बैंच की तरह
जो सदियों से वहीं है
कितने ही मुसाफ़िर आयें जायें
कितने ही मौसम बदलें
मगर उसका ठहराव अटल है
ये सदियों से सदियों के सफ़र पर
चलने वाले मुसाफ़िरों की
न दिशा होती है न दशा और न मंज़िल
सिर्फ़ भटकाव के घने काले सायों में
जीना ही उनका उत्तरार्ध होता है
जाने क्यों फिर भी चलते चले जाने को अभिशप्त होते हैं
और सडक है कि जिसका न ओर मिलता है और न छोर
अब तुम नही हो
लेकिन तुम्हारे नहीं होने से मेरे होने तक
बस है तो बीच में ........ एक यादों की सडक
क्या कभी मिलेगा इसे कोई अनुवादक जो बाँच सके यादों की गुरमुखी ?
4 टिप्पणियां:
bahut sundar
सब को नवदुर्गा-पर्व की शुभकामना ! आज के वृद्ध-दिवस की वधाई सभी वरिष्ठ नागरिकों को !अच्छी प्रस्तुति !
छोटे भाव की बड़ी कविता।
वाह बहुत खूब
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