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गुरुवार, 28 मई 2015

भरम टूट चुके हैं मेरे

एक और दिन की शुरुआत ... कुछ ख़ास नहीं .......वो ही उलझा उलझा , अपनी वीरानियों में सिमटा हुआ , एक ठंडी चाय के अहसासों से लबरेज़ , किसी वृक्ष से गिरी पीली पत्तियों सा बिखरा ..........जाने कौन सा फलसफा लिखेगा ........ जहाँ कोई मुलाकात का वादा नहीं किसी से , जहाँ इंतज़ार के ठहरे हुए पलों में नहीं है कोई कहानी .....बस एक ख़ामोशी है जिसके पीछे जाने कौन सी वजह है दरयाफ्त करने को आजकल नहीं मिला करती खुद से भी ...........बेगानापन तारी है मानो जुबाँ पर कसैलापन चढ़ा हो और मिश्री भी कडवी लग रही हो ..........सुनो , क्या कर सकोगे व्याख्या आखिर मैं चाहती क्या हूँ क्योंकि एक अरसा हुआ भटकते बियाबानों में मगर ?

ए .......... अब इसे मोहब्बत नाम न देना भरम टूट चुके हैं मेरे ........उससे इतर कोई नयी इबारत लिख सको या बयां कर सको तो खट्टी इमली सा स्वाद भी काफी होगा जीने के लिए  ......... यूँ भी पतझड़ से झड़ते दिन गवाह हैं कल फिर एक आज बन खड़ा होगा यही प्रश्न लिए .......... क्या कर सकोगे अब इबादत बिना बुत के सजदे में झुकने की रस्म अदा कर हलाल होने की .........क्योंकि जरूरी तो नहीं दिन बदलने से बदल जाएँ तकदीरें भी .....वक्त की स्याही हमेशा काली ही हुआ करती है ..........और तुम वक्त से आगे हो और मैं न आगे न पीछे ............मध्य मार्ग मेरी मजबूरी है ........उदासियों के शहर में खामोशियों का अनशन सिखा रहा है मुझे दिन को कतरा कतरा बेजुबान करना मानो गिद्धों ने नोंच डाला हो जिस्म सारा ......अब और क्या दिन बीतने और रीतने के फलसफे सुनाऊँ तुम्हें ..........समझ सको तो समझ लेना यहाँ सुबह बासी फूल सी मुरझाई हुआ करती है और शामें किसी शोक संतप्त परिवार सी गुजरा करती हैं ........और तुम कहते हो दिन की हथेली पर लिखूं तुम्हारा नाम तो खिल उठेंगे सारे शहर के गुलाब ........आह ! 

मंगलवार, 26 मई 2015

अच्छे दिन आयेंगे

साहेब मदारी बन डुगडुगी बजा रहे हैं 
जनता जानती है नाचना बन्दर सा 
देखो खेल सफल हो रहा है 
सावन के अंधों को सिर्फ हरा ही सूझ रहा है 

वैसे भी मैं इतनी विदेश यात्राएं यूँ ही नहीं कर रहा 
बस जनता का जनता को लौटा रहा हूँ 
अपना नाम थोड़े ही देश का नाम रौशन कर रहा हूँ 
ख्याली पुलाव पकाना आदत है मेरी 
जो मुझे जानते हैं विश्वास नहीं करते

चलिए एक साल निकल गया 
चार और इसी तरह निकल जायेंगे 
आप हमारे सम्मोहन में फंसे किधर जायेंगे 
लौट कर बार बार यहीं आयेंगे 

यूँ मिशन पूरा हो जाएगा 
देश का भला , जनता का भला करते करते 
अपना भला कर जायेंगे 
आप फिर से कहेंगे जनाब 
अच्छे दिन आयेंगे , अच्छे दिन आयेंगे , अच्छे दिन आयेंगे ........

अच्छे दिनों के ख्वाब में ही अच्छे दिन निकल जाएंगे 

सोमवार, 18 मई 2015

ए री सखी

ए री सखी
याद तो आती होंगी वो रेशमी मुलाकातें
जहाँ तुम थीं, मैं थी और थीं हमारी कभी न ख़त्म होने वाली बातें


उफ़
जाने कहाँ खो गए वो दिन वो रातें
जिनमे होती थीं कभी तरन्नुम सी बातें
रातरानी से महकते थे जब हम
बेख्याली में गुजर जाती थीं मुलाकातें
अब यादों के चंदोवे कहाँ बिछाऊँ
जिन पर वो महफिलें फिर से सजाऊँ
रह रह यही ख्याल आ रहा है
दिल बस यही गुनगुना रहा है
'गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा ' 


क्या सच री सखी
गुजरती है तू भी कभी यादों के उस दौर से
तो एक बार इशारा करना
मुझ तक पहुँच जायेगा
दिल से दिल को राह होती है वाला मामला जो ठहरा 


शायद उस पल
गुजरा वक्त इक पल को ही सही लौट आएगा , लौट आएगा , लौट आएगा ...

रविवार, 10 मई 2015

ज़िन्दगी जीने को ज़िन्दगी तो देना ....



जाने किस अंगार पर चली होगी
जाने किस आंच में झुलसी होगी
यूँ ही तो नहीं आह निकली होगी

जब भी तूने घूँट भरी होगी
पोर पोर विष में सनी होगी
माँ ने जो ज़िन्दगी जीयी थी
जाने किस दोजख से गुजरी होगी

तभी तो
यूँ नहीं नहीं निकला होगा मुख से
अगला जन्म कोई हो तो ए ईश्वर
नारी का न चोला देना
ज़िन्दगी जीने को ज़िन्दगी तो देना ....

बेशक नारी हूँ बेटी हूँ मगर
नहीं गुजरी जिन पगडंडियों से
कैसे अनुमान लगा सकती हूँ
कैसे तेरे दर्द से रु-ब-रु हो सकती हूँ

शायद तभी
विष के प्याले पीने को मीरा होना जरूरी होता है ..... है न माँ !!!

शुक्रवार, 8 मई 2015

न तुम गया वक्त हो और न मैं .........

जाने वो कौन सा गाँव कौन सा शहर कौन सी डगर है
जहाँ कोयल के कुहुकने से होती हैं सुबहें

अब चौपाये इश्क के हों या अंधेरों के
एक बिखरी रौशनी कात रही है सूत
उम्र का रेशा रेशा कम होता रहे बेशक
ओढने को चादर बना ही दी जाएगी

फिर क्या फर्क पड़ता है
दिन हो या रात
शहर हो या गाँव
गली हो या डगर
नीम बेहोशी के गुम्बदों पर ही तो
गुटर गूं किया करते हैं इश्क के कबूतर

ये दैनन्दिनी नहीं
जिसमे दर्ज की जा सकें हिमाकतें
इश्क के खूबसूरत छलावों ने ही तो बांधे हैं पीपल पर लाल धागे

फिर कौन सुप्त तारों को झिंझोड़े
और बनाए एक नयी सरगम
जब इश्क की कोयलों के पाँव में छनकती हों पायलें
और नर्तन से करती हो धरा अपना श्रृंगार

आओ कि उस सुबह का आगाज़ करें हम .......लेकर एक दूजे का हाथ हाथों में
न तुम गया वक्त हो और न मैं .........

मंगलवार, 5 मई 2015

मजदूर दिवस की मजबूरी



 हास्य व्यंग्य पत्रिका अट्टहास के मई अंक में :




लेखक संघ के प्रवक्ता जोर से माइक पर चिल्लाये :
अरे जागो जागो सोने वालों चलिए आ गया एक बार फिर हो - हल्ला मचाने का दिन . कुम्भकर्णी नींद में सोये हुओं को जगाने का दिन . बाद में न कहना अरे बता दिए होते जगा दिए होते . आखिर एक ही दिन की तो बात होती है फिर तो लम्बी रात होती है 364 दिन लम्बी रात . भई , ये लेखकों की बिरादरी है जो खास ख़ास दिनों पर जरूर जागती है और उस ख़ास दिन को अपने लेखन से ख़ास बना उस दिन के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराती है तो कैसे संभव है हम इस दिन को चूक जाए और जो हाथ में संवेदनशील होने का मौका आया है उसे भुनाने से खुद को रोक पाएंइसलिए आज तुम सबको चेताने को हमने सोचा और इस सभा का आयोजन किया है ताकि तुम सब दल बल के साथ तैयार हो जाओ .

देखो मजदूर दिवस आ रहा है . अब आ रहा है तो आ रहा है इसमें नया क्या तुम कहोगे लेकिन उसी बारे में तुम्हें बताना है . यूं तो हर साल आता है लेकिन फिर भी बहुत से लेखकों को पता ही नहीं चलता तो वो इलज़ाम लगाते हैं हमें बता दिए होते तो हम भी दो चार रचनाएँ ठेल दिए होते इसलिए इस शिकायत को दूर करने के लिए हमने ये आयोजन रखा है . अब हमें तुम्हें मई दिवस के बारे में विस्तार से बताते हैं ताकि अगली बार ये न कहो कि ये तो बताया ही नहीं गया कि आखिर लिखना क्या था .

अरे भाई ,जब मजदूर दिवस है तो  करना ही क्या होता है सिर्फ इतना ही न कि थोडा उनका दर्द लिखो , उनके फाकों पर अपने प्रतीकों और बिम्बों का मरहम रखो , उनकी भूख , उनकी पीड़ा , उनकी तकलीफों पर ऐसे दर्द का गान लिखो कि जो पढ़े वो तुम्हें ही उनका सबसे बड़ा खैर ख्वाह जाने , तुम से ऊपर न तुम से आगे कोई भी ऐसा किरदार दिखे , बस होने को मशहूर और क्या चाहिए भला क्योंकि क्या पता कौन सी कविता , कौन सा व्यंग्य , कौन सी कहानी या कौन सा आलेख तुम्हें कालजयी बना दे और यही तो होता है अंतिम उद्देश्य कुछ भी रचने का

देखो मजदूर दिवस का औचित्य क्या है भले तुम न जानो तो गूगल खंगाल डालो. सारी जानकारी एक क्लिक की दूरी पर ही तो है . कितना आसान हो जायेगा फिर लिखना कहना और खुद को हमदर्द सिद्ध करना . वैसे भी यदि तुम चूक गए तो एक साल के लिए बात चली जाती है इसलिए जरूरी है उस दिन आन्दोलनकारी कविता कहानी आदि लिखना और संवेदनशीलों की श्रेणी में शामिल होना

वैसे भी जरूरी है आज ये स्लोगन : चलो मई दिवस मनाएं , मजदूरों के हक़ में आवाज़ उठाएं . आखिर हमारा भी फर्ज बनता है , लेखक कवि की श्रेणी में आते हैं संवेदनशील कहाते हैं , मजदूर के दर्द , उत्पीडन , तंगहाली , बदहाली पर एक कविता लिखनी ही होगी . फिर देखना कैसे तुम मजदूरों के हमदर्दों में शामिल हो जाओगे और उनके लिए हुए आयोजनों में बुलाये जाओगे वहां अपनी कविता पढ़ आना तुम्हारा भी काम हो जाएगा और आयोजकों का भी . बाकी मजदूर का क्या है वो कल भी वहीँ था , आज भी वहीँ है और कल भी वहीँ रहेगा .........ये अकाट्य सत्य है . तो क्यों न  एक दिन के लिए जाग कर अपने सारे लाव लश्कर के साथ कूच किया जाए और लेखनी को प्रमाणित सिद्ध किया जाए . वैसे भी करना क्या है उनके दर्द तकलीफों में नमक मिर्च लगाकर परोसना भर ही तो है वो भी ऐसे कि हर आँख नम हो उठे और हर कोई पूछ बैठे : आपने कैसे इतना सब कुछ लिख दिया ? क्या आपने ऐसा जीवन देखा है या जीया है ? तब तुम्हें मौका मिलेगा ऊंची - ऊंची हांक देना . चाहो तो अपने माँ बाप और अपने बचपन को ऐसे माहौल में जीया बता देना चाहो तो कहना , मैं तुम्हारा दुःख दर्द जानने और समझने के लिए कुछ वक्त तुम्हारे जैसे लोगों के बीच रहा तब जाना और तभी मेरी कलम में तुम्हारी पीड़ा जीवंत हो उठी लेकिन मुझे तो लगता है मैंने तो तुम्हारी पीड़ा का क्षणांश भी नहीं लिखा , मैं तो तुम्हारे दर्द के बस करीब भर से गुजरा हूँ लेकिन तुम्हारी पीड़ा को व्यक्त कर सकूं ऐसी सामर्थ्य मेरी लेखनी में नहीं कहते कहते दो आंसू टपका देना बस समझो सारी बाजी तुम्हारे हाथ आ गयी . समझे या नहीं अब भी ? अरे भैये कौन से तुम्हारी अंटी से लक्ष्मी देवी खिसक जायेंगी बल्कि ऐसे आयोजनों में तुम्हारी अंटी में ही आएँगी

वैसे अंत में एक सत्य आप सभी को बता दूं गर एक कविता लिखने से मजदूर की ज़िन्दगी बदली होती तो संसार में कोई क्रांति न हुई होती , उनकी जिंदगियों में परिवर्तन नहीं आया करता , जब सब ढकोसलों के वस्त्र ओढ़कर बड़े बड़े आयोजन कर लेते हैं तो बहती गंगा में यदि हम भी हाथ धो लेते हैं तो कौन सा गंगा का जल कम हो जाएगा बल्कि हम सबका नाम भी उनके हमदर्दों की फेहरिस्त में जुड़ जाएगा , बाकि उसे तो दो रोटी के लिए कल भी जद्दोजहद करनी पड़ती थी और आज भी करता है ऐसे आयोजनों या ऐसे दिन मनाने से उनकी ज़िन्दगी में कुछ नहीं बदलता है , तो उन्हें उनके हाल पर छोडो और अपने लेखन से नाता जोड़ो ........इसलिए एक सत्य ये भी जानो , तुम भी मजदूर की श्रेणी में आते हो , अरे भाई तुम कलम के मजदूर हो न ? तो फिर तुम्हारे ही तो भाई बंधू हैं क्या उनके लिए एक दिन नहीं जाग सकते ? क्या उनके लिए कुछ प्रभावशाली नहीं लिख सकते कम से कम उन्हें ऐसा तो लगे कि कोई हो न हो लेकिन लेखक संघ उनकी समस्या को सबसे ज्यादा समझता है तभी तो अपनी कलम में उनका दर्द लिखता है

बाकी सारे सत्य तुम्हारे सामने हमने तो रख दिए अब तुम्हारी मर्ज़ी इसे मजदूर दिवस की मजबूरी समझो या हाथ में आया मौका . भई , हम तो चले जुगाड़ भिडाने की कोशिश में अब तुम सोचो तुम्हें कैसे इस मौके को भुनाना है और अपना नाम रौशन करवाना है

तो बोलो सब मिलकर : मजदूर दिवस की जय