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बुधवार, 21 जनवरी 2009

मैं इक खुली किताब हूँ
जिसको तूने कभी पढ़ा ही नही
इस किताब के किसी भी पन्ने पर
प्यार का रंग चढा ही नही
हर पन्ने पर इक कहानी थी
कोई आंसू से भीगी
कोई खून से लिखी
कोई दर्द से लिपटी
कोई तन्हाई में डूबी
हर कहानी में
काली स्याही से लिखा
हर शब्द जैसे
तुम्हें पुकार रहा हो
मगर तुमने तो उधर
देखा ही नही
हर शब्द में छुपे
दर्द को जाना ही नही
जब तूने मुझे जाना ही नही
तो कैसे प्यार का रंग चढ़ता
किताब तो आज भी खुली की खुली है
मगर तेरे पास ही वो नज़र नही है
आज भी इस किताब के पन्ने
तेरे पढने के इंतज़ार में पड़े हैं
देखो इतनी देर न करना
कि वक्त की दीमक इन्हें खा जाए
हर पन्ने पर तेरी मेरी दास्ताँ है
बस तू कोशिश तो कर इक बार पढने कि

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कविता, बड़े गहरे भाव

    ---आपका हार्दिक स्वागत है
    चाँद, बादल और शाम

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  2. dekhna itni der naa karna k vakt ki deemak inhen khaa jaaye bahut badhia likha hai

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  3. फिर से उम्दा रचना। वैसे एक बात कहूँ खुली किताब अक्सर नही पढी जाती है यह दुनिया का द्स्तूर है।

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  4. देखो इतनी देर न करना
    कि वक्त की दीमक इन्हें खा जाए
    हर पन्ने पर तेरी मेरी दास्ताँ है
    बस तू कोशिश तो कर इक बार पढने कि
    बहुत सुंदर रचना लिखी है।

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  5. देखो इतनी देर न करना
    कि वक्त की दीमक इन्हें खा जाए


    वाह बहुत अच्छा लिखा आपने|

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  6. आंसू से भीगी ,खून से लिखी ,दर्द में लिपटी ,तन्हाई में डूबी कहानी अति सुंदर /परन्तु खून से लिखी कहानी में कली स्याही से लिखे शब्द कहाँ से आए विचारणीय है /जिस किताब में ऐसी दर्दीली कहानी हो, जिसको दीमक का डर हो ऐसी कहानी पढने कौन और क्यों आएगा /किसी के गम में डूबने की कोशिश कोई क्यों करेगा /जिंदगी गम में डूबने के लिए नही है /आदमी दस जनों के साथ हँसता है लेकिन रोता अकेले में है /""मैं चला था तो मेरे साथ चले थे कितने ,और जब गिरा तो उठाने आए कितने ?""किताब असल में वह होना चाहिए जिसमे खुशी हो हंसी हो ,उत्साह हो ,जीने की ललक हो ,कुछ अरमान हों ,कुछ इसरार ,कुछ इकरार कुछ इनकार की बातें हों ,कुछ रसमय चित्रण हो कुछ रंगीन तस्वीरें हों /रचना ऐसी हो कि कवि अपनी कल्पना के पंखों से प्रेम और स्नेह के गीत लेकर अनंत आकाश में उड़ कर उन्हें व्योम में विखेर कर स्वम भी भाराक्रांत ह्रदय को हल्का करके फिर अपने नीड़ में लौट आए और पाठक को भी शीतलता से सराबोर कर दे /आज का व्यक्ति किन उलझनों में है और फिर उसे ऐसा कुछ पढने को कहा जाए ? गोस्वामी जी ने लिखा है ""ग्रह गृहीत ,पुनि बात वस ,तेहि पुनि बीछी मार /तेहि पिआइह बारुनी ,कहहु काह उपचार ""

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  7. vandana ji ,

    bahut acchi rachana ..

    behad bhaaavpoorn dhang se aapne apni baat kahi hai

    हर शब्द जैसे
    तुम्हें पुकार रहा हो
    मगर तुमने तो उधर
    देखा ही नही
    हर शब्द में छुपे
    दर्द को जाना ही नही

    bahut badhai

    जवाब देंहटाएं

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