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शनिवार, 2 मई 2009

तू मानव तो बनना सीख ले

सीता मुझमें ढूँढने वाले
पहले राम तो बनना सीख ले
राम भी बनने से पहले
तू मानव बनना सीख ले
हर सीता को राम मिले
ऐसा यहाँ कब होता है
राम के वेश में ना जाने
कितने रावण हैं विचर रहे
इस दुनिया रुपी वन में
आजाद ना कोई सीता है
कदम कदम पर यहाँ
भयभीत हर इक सीता है
रात के बढ़ते सायों में
महफूज नही कोई सीता है
सीता को ढूँढने वाले मानव
तू नर तो बनना सीख ले
सीता के भक्षक रावणों से
पहले सीता को बचाना सीख ले
पग-पग पर अग्निपरीक्षा लेने वाले
पहले तू मानव तो बनना सीख ले
तू मानव बनना सीख ले ................

9 टिप्‍पणियां:

  1. मानव-मानव बन,
    रावण बन करके पछतायेगा।
    जल जायेगी लंका सारी,
    मिट्टी में मिल जायेगा।

    सीता की है यही वन्दना,
    कान खोल कर सुन लेना।
    थोड़े से शब्दों को ही,
    अपनी बुद्धि में गुण लेना।

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  2. पहले तू मानव तो बनना सीख ले
    तू मानव बनना सीख ले ................
    vandanajii gupta,
    very Nice poem...............................................
    thaking u...
    MUMBAI TIGER
    HEY PRABHU YEH TERAPANTH

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही प्रेरणा देने वाली कविता है ये..!आज यदि सभी मानव बनना भी सीख ले तो शायद राम बन्ने की जरूरत ही न पड़े...!अछि रचना के लिए धन्यवाद..

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  4. सुन्दर भाव एवं प्रस्तुति।

    शक्ल हो बस आदमी का क्या यही पहचान है।
    ढ़ूँढ़ता हूँ दर - ब - दर मिलता नहीं इन्सान है।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  5. पहली लाईन पढते ही आनंद आ गया था और यह अंदाजा भी हो गया था कि रचना वाकई सुन्दर और बेहतरीन लिखी गई होगी। और हुआ भी वही। सच वंदना जी कमाल का लिखा है। अद्भुत।

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  6. कविता में व्यक्त भावः सुन्दर है ,हालाँकि मानवीय मूल्यों की बात
    कहने के लिए राम कितने उपयुक्त प्रतिमान हैं ...? ये सोचने वाली
    बात है , राम अगर ईश्वर ही हैं तब तो ठीक है ...वो कुछ भी कर
    सकते हैं ... लेकिन मानवीय पहलू उनका भी निर्विवाद/आदर्श नहीं है.....

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  7. राम भी बनने से पहले
    तू मानव बनना सीख ले
    बहुत बढ़िया बात कही है आपने...वाह...पूरी रचना शानदार है...बधाई...
    नीरज

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  8. वन्दना जी,

    आज आपकी अभी अभी दो रचनाये, "तू मानव तो बनना सीख ले" और "पैसा ये सिर्फ पैसा है" पढी, बहुत अच्छी एवम सामयिक कविता थी.

    वाकई आदमी राम नही होता परन्तु स्त्री से सीता की उमीद जरूर करता है, समस्त मर्यादये स्त्रियो के लिये तो रखता है परन्तु स्वयम मर्यादाओ से स्वयम को ऊपर समझता है. ये बडी हैरानी की बात है. पर समय बदल रहा है, आदमी को इन्सान बनना होगा नही तो उसकी बनाई हदे उसे ही एक दिन समाप्त कर देन्गी.

    बहुत सुन्दर बधाई

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