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बुधवार, 25 नवंबर 2009

कैसे करूँ नमन ?

शहीदों को नमन किया
श्रद्धांजलि अर्पित की
और हो गया कर्तव्य पूरा


ए मेरे देशवासियों
किस हाल में है
मेरे घर के वासी
कभी जाकर पूछना हाल उनका


बेटे की आंखों में
ठहरे इंतज़ार को
एक बार कुरेदना तो सही
सावन की बरसात
तो ठहर भी जाती है
मगर इस बरसात का
बाँध कहाँ बाँधोगे
कभी बिटिया के सपनो में
झांकना तो सही
उसके ख्वाबों के
बिखरने का दर्द
एक बार उठाना तो सही
कुचले हुए
अरमानों की क्षत-विक्षत
लाश के बोझ को कैसे संभालोगे?


कभी माँ के आँचल
को हिलाना तो सही
दर्द के टुकड़ों को न समेट पाओगे
पिता के सीने में
जलते अरमानो की चिता में
तुम भी झुलस जाओगे

कभी मेरी बेवा के
चेहरे को ताकना तो सही
बर्फ से ज़र्द चेहरे को
एक बार पढ़ना तो सही
सूनी मांग में ठहरे पतझड़ को
एक बार देखना तो सही
होठों पर ठहरी ख़ामोशी को
एक बार तोड़ने की
कोशिश करना तो सही
भावनाओं का सैलाब जो आएगा
सारे तटबंधों को तोड़ता
तुम्हें भी बहा ले जाएगा
तब जानोगे
एक ज़िन्दगी खोने का दर्द

चलो ये भी मत करना 
बस तुम कुछ तो जिंदा खुद को कर लेना 
मेरी बीवी मेरे बच्चे 
मेरी माँ मेरे पिता 
सबके चेहरे पर मुस्कान खिल जायेगी 
जिस दिन शहादत के सही मायने तुम्हें समझ आयेंगे 
और तुम 
अपने घर में छुपे गद्दारों से दो - दो हाथ कर पाओगे 

पडोसी मुल्क जिंदाबाद के नारों 
और आतंकवादी की मृत्यु के विरोध में 
उठती आवाजों से
जिस दिन तुम्हारे कान फट जायेंगे 
विद्रोह के बीज के साथ 
देशभक्ति के बीज तुम्हारी नस्लों में बुब जायेंगे 
मेरी शहादत आकार पा जायेगी 
देश की मिटटी देश के काम आयी 
सोच , मेरी रूह सही मायनों में 
उस दिन सुकून पाएगी 

क्योंकि तुम
तब शायद समझ पाओगे
कर्तव्य सिर्फ़ नमन तक नही होता
सिर्फ़ नमन तक नही होता....

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

मत ढूँढ बाहर

उस एक स्वरुप में
क्यूँ न खोजा तूने
जो दूसरे में पाना
चाहता है
मानव तू क्यूँ
भटकना चाहता है
भावों के दलदल में
क्यूँ धँसता जाता है
तेरे हर ख्वाब की
ताबीर वहीँ है
हर चाहत का
हासिल वही है
हर राह की
मंजिल वही है
फिर क्यूँ तू
मरुभूमि में
जल के कण
ढूंढ़ना चाहता है
क्यूँ सागर से
प्यास बुझाना
चाहता है
तेरा चाँद तेरे साथ है
फिर क्या भटकने की बात है
खोज , जो खोजना है
पा , जो पाना चाहता है
दे , जो देना चाहता है
मगर सिर्फ़
उसी स्वरुप में
उसी दिव्य रूप में
जो तेरे साथ है
तेरे पास है
फिर क्यूँ तुझे
झूठे प्यार की तलाश है
मृगतृष्णा को छोड़
उस कच्चे धागे की
डोर से बंधकर
तो देख एक बार
हर ओर
रौशनी होगी
सितारों सी चमक होगी
बहारों की महक होगी
मत ढूंढ बाहर कहीं
तेरा महबूब
उसी स्वरुप में
तुझे मिल जाएगा
जिसे तूने कभी
चाहने की कोशिश न की
जिसके अंतस में
दिया कभी जलाया ही नही
एक बार
तू कोशिश तो कर
फिर दूसरा न कोई रूप
दूसरा न कोई स्वरुप
तुझे दिख पायेगा
तेरा अपना महबूब ही
उसमें मिल जाएगा
तू एक बार
उसके अंतस में
उतर कर तो देख