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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

गिले -शिकवे

इक प्यासी रूह को
सुकून कब मिला है

घुटन की दलदल में फंसी
ज़िन्दगी का यही सिला है

चेहरे पर उभरती लकीरों में
दर्द का ही सिलसिला है

कुछ पल ठहर जाऊं कहीं
ज़िन्दगी का बस यही गिला है

रविवार, 6 दिसंबर 2009

दबी चिंगारी को हवा मत दो............६ दिसम्बर

मरा इक शख्स था
हुए बरबाद
न जाने कितने थे


उस एक चेहरे को ढूंढती
निगाहें आज
न जाने कितनी हैं
गम का वो सूखा
ठहरा आज भी
हर इक निगाह में है
सियासत की ज़मीन
पर बिखरी
लाशें हजारों हैं


राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है


कैसे ये क़र्ज़ चुकाओगे
कैसे फिर फ़र्ज़ निभाओगे
लहू के दरिया में बही
मानवता फिर आज है


कैसे एक दिन के लिए
सियासत यूँ चमकती है
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?