वो कहते हैं इंसान कहीं खो गया
मगर मुझे तो अभी अभी मिला
अलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
सारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ
जनहु ऋषि सा ओक में पीता हुआ
गंगा को अपवित्र करता हुआ
अपने हाथ में भगवान पकडे हुए
ऊँगली के इशारे पर नचाता हुआ सा
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला
एटम बम बनाता हुआ
संसार को दाढ़ों में चबाता हुआ
मानवता को मसलता हुआ
शैतान को मात करता हुआ
आगे बढ़ने की चाह में
अपनों के सिर कुचलता हुआ
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला
जीने के नए मानक गढ़ता हुआ
पीर पैगम्बर से ना डरता हुआ
अमनोचैन को नेस्तनाबूद करता हुआ
खुद को खुदा समझता हुआ
मरे हुए को और मारता हुआ
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला
मगर मुझे तो अभी अभी मिला
अलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
सारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ
जनहु ऋषि सा ओक में पीता हुआ
गंगा को अपवित्र करता हुआ
अपने हाथ में भगवान पकडे हुए
ऊँगली के इशारे पर नचाता हुआ सा
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला
एटम बम बनाता हुआ
संसार को दाढ़ों में चबाता हुआ
मानवता को मसलता हुआ
शैतान को मात करता हुआ
आगे बढ़ने की चाह में
अपनों के सिर कुचलता हुआ
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला
जीने के नए मानक गढ़ता हुआ
पीर पैगम्बर से ना डरता हुआ
अमनोचैन को नेस्तनाबूद करता हुआ
खुद को खुदा समझता हुआ
मरे हुए को और मारता हुआ
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला
बहुत अच्छी रचना है बधाई।
जवाब देंहटाएंआज इंसान की यही पहचान बन गयी है ...बहुत सही अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
जवाब देंहटाएंसारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ
ye insaaan waise agar aaj ke paripekshya me dekhen to naye naye ayam gadh raha hai..........:)
lekin kash aman naam ka pakshhi bhi saath me rahta to....to ye duniya kitni rangili hoti...:)
ek shandaar rachna...
yahi to hai tathakathit insan,haivaniyat ki sari haden par karta hua...
जवाब देंहटाएंsachchai ki sundar bhav-prastuti.
वंदना जी,
जवाब देंहटाएंदिल को चीर देने वाले बहुत ही सार्थक,विचारोत्तेजक व्यंग्य से लबालब भरी है आपकी कविता !
मेरा साधुवाद स्वीकार करें !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
न जाने कहाँ ले जायेगी यह मानसिकता।
जवाब देंहटाएंmujhe to insan abhi abhi mila
जवाब देंहटाएंbahut sunder sabd
sunder rachna...
mere blog par
"main"
रचना बहुत सुन्दर है!
जवाब देंहटाएंइनसानों की भीड़ में इनसान कहीं खो गया है!
अजी यह इंसान के रुप मे कोई ओर होगा, आज का इंसान तो किसी कोने मे बेठा सब कुछ देख रहा हे...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी ओर तीखा व्यंग करती रचना धन्यवाद
ऐसा इंसान न तो हुआ है और न हो सकता है जो इन सब को समाहित किये हो .
जवाब देंहटाएंहाँ ऐसे इंसान के कुछ अंश किसी न किसी रूप में दिख ही जाते हैं.
सादर
वंदना जी, बहुत प्यारी बात कही। अच्छा लगा इसे पढना।
जवाब देंहटाएं---------
कादेरी भूत और उसका परिवार।
मासिक धर्म और उससे जुड़ी अवधारणाएं।
एटम बम बनाता हुआ
जवाब देंहटाएंजहाँ को दाढ़ों में चबाता हुआ
मानवता को मसलता हुआ
शैतान को मात करता हुआ
आगे बढ़ने की चाह में
अपनों के सिर कुचलता हुआ
बहुत अच्छी रचना है बधाई।
इंसान और इंसानियत का वास्तविक चेहरे को आपने अनावृत्त किया है।
जवाब देंहटाएंयथार्थपरक रचना।
इंसान की बदलती परिभाषा को रेखांकित करती रचना
जवाब देंहटाएंसामयिक और सुन्दर
आज के इन्सान की सही पहचान.
जवाब देंहटाएंइंसान की यही पहचान है ,अच्छी अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंअब इन्सान ऐसा ही है
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ,समसामयिक, सच्ची और सार्थक अभिव्यक्ति, बधाई।
जवाब देंहटाएंवंदना जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
.बहुत सही अभिव्यक्ति एक अच्छी और सामयिक प्रस्तुति ! बधाई
वंदना जी,
जवाब देंहटाएंआपकी बेहतरीन रचनाओं में शुमार करता हूँ मैं इस रचना को.....बहुत ही ज़बरदस्त कटाक्ष किया है आपने आज के इंसान पर......बहुत खूब|
जो आपको मिला वह इंसान नहीं आदमी है। इंसान जहां है वह बेचारा इसी बात पर परेशान है कि आदमी ने उसे अपने में अलग कर दिया है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन शब्दों का संगम इस रचना में ।
जवाब देंहटाएंबदलते जीवन मूल्यों के प्रति सचेत करती कविता बेहद प्रभावशाली बनी है... सामाजिक सरोकार की सुन्दर कविता...
जवाब देंहटाएंवाह! क्या बात है! बेहतरीन अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंये आज का सभ्यता के शिखर पर चढ़ा मानव (इंसान है ), सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा, एकदम सही तस्वीर पेश की है आज के इंसान की.
जवाब देंहटाएंमैंने एक बार लिखा था मुश्किल हो गया है आदमी को परिभाषित करना.....लेकिन आज हमें वह परिभाषा मिल गयी सचमुच यह आदमी ऐसा ही हो गया हिया.. क्या फिर वैसा हो पायेगा जैसा हम सब की अभिलाषा है? आखिर मानवीय मूल्यों का क्षरण इथी तेजी से क्यों हो रहा है..? इसे तो अच्छा हो हमारी आकृति ही बदल जाय माना शरीर केवल उनका रहे जिसके अन्दर मानवता हो...यह विधा यदि विकसित हो जाय तो कुरूपता के भय से ही शायद बदलाव आ पाए क्योकि आदमी कुरूप दिखना पसंद नहीं करेगा हर हालाद में सुन्दर दीखने के लिए उसे आंतरिक सौदर्य जगाना ही पडेगा काश! विज्ञान ऐसा कुछ कर दे. परन्तु ये भाई लोग उसे जीवित भी छोड़ेंगे क्या? बहुत बहुत आभार ....
जवाब देंहटाएंइन्सान को खोजना आज के युग में सच मुश्किल है......... सुंदर व्यंग्य.
जवाब देंहटाएं.
सृजन - शिखर
इंसान जो आपको मिला उसकी शक्ल बदल गयी है ...शैतान ही मिला आपको इंसान के वेश में ...
जवाब देंहटाएंवर्तमान पर अच्छी कविता !
lajbab
जवाब देंहटाएंsundar rachna bdhai dost
जवाब देंहटाएंऐसे इंसान बहुत कम मिलते है।
जवाब देंहटाएं---------
बोलने वाले पत्थर।
सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है?
आप कैसी हैं? मैं आपकी सारी छूटी हुई पोस्ट्स इत्मीनान से पढ़ कर दोबारा आता हूँ...
जवाब देंहटाएंअलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
जवाब देंहटाएंसारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ
ऐसे लोगों की संख्या बढाती जा रही है -
सच का बोध कराती हुई सुंदर अभिव्यक्ति
बधाई एवं शुभकामनाएं
बेहद सुन्दर रचना .. अच्छी पोस्ट है.. सुन्दर कविता .. आज चर्चामंच पर आपकी पोस्ट है...आपका धन्यवाद ...मकर संक्रांति पर हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/blog-post_14.html
गिरती हुई इंसानियत का खूबसूरत चित्रण है आपकी रचना.
जवाब देंहटाएंinsan ki saprsang vyakhya bahut achchi tarah kar di aapne.
जवाब देंहटाएंबदलते परिवेश और रिश्तों के बदलते रूप ने मनुष्य को जहां ला खड़ा किया है ...वहाँ इंसान ढूंढना सच में मुर्खता है ....
जवाब देंहटाएंवाह वंदना जी,
जवाब देंहटाएंआज समाज के ज़्यादातर इंसान की ऐसी ही स्थिति हो चली है...
बहुत अच्छी रचना है.
सभी पाठको को सूचित किया जाता है कि पहेली का आयोजन अब से मेरे नए ब्लॉग पर होगा ...
जवाब देंहटाएंपुराना ब्लॉग किसी कारणवश खुल नहीं पा रहा है
नए ब्लॉग पर जाने के लिए यहा पर आए
धर्म-संस्कृति-ज्ञान पहेली मंच.