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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

कहो फिर कौन कहाँ खोजें सृष्टि


शब्द कागज़ कलम ही काफी नहीं होता
भावों के बीजों का होना भी तो जरूरी है 


विचारों भावों का हो जाये लोप
शब्द भी हो जाएँ अलोप
निर्मिमेष दृष्टि त्राटक समाधि
फिर ना कोई व्यापे व्याधि 
कालखंड का ना रहे ज्ञान
मैं तू का भी ना रहे भान
आसक्ति का भी हो जाये त्याग 
एक अलौकिक हो ब्रह्माण्ड
आत्मानंद में समा जाये अंड
फिर हो जाए 
निर्विकार निर्द्वंद निर्लेप अंतर्दृष्टि 
कहो फिर कौन कहाँ खोजें सृष्टि 

5 टिप्‍पणियां:

  1. निर्निमेष दृष्टि, व्यापक समाधि............

    बिल्कुल परालौकिक .....................
    बिना भाव के समाधि तक पहुँच पाना असम्भव है, ऊँचाइयों को छूती रचना.......वाह !!!!!!!!

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  2. achchi rachna ,is se pahle wali rachna bhi bahut pyaari thee,lga ke mere man ke bhaav aap ne likh diye ho

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  3. जय हो,जय हो
    आपने तो समाधि ही लगवा दी है,वंदना जी.
    निर्मिमेष दृष्टि त्राटक समाधि...वाह! क्या बात है.

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्‍छी अध्‍यात्मिक रचना । 'शब्‍द भी हो जाए अलोप' कुछ समझ नहीं आया, शायद टंकण की गलती हो या कुछ विशिष्‍ट संदर्भ में हो, लिखने वाला बेहतर जान सकता है ।

    हॉं मेरी पोस्‍ट पर आपकी तवज्‍जो के लिए धन्‍यवाद ।

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