जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है
बदलाव की बयार भी मुझको चाहिए
जादू की मानो कोई छड़ी होनी चाहिए
जो घुमाते ही अलादीन के चिराग सी
सारे मसले हल करनी चाहिए
मगर सब्र की कोई ईमारत ना मैं गढ़ना चाहता हूँ
बस मुँह से निकली बात ही पूरी करना चाहता हूँ
खुद को आम बताता जाता हूँ
मगर खास की श्रेणी में आना चाहता हूँ
आम -ओ- खास की जद्दोजहद से
ना बाहर आना चाहता हूँ
जो है जैसा है की आदत से न उबरना चाहता हूँ
यही मेरी कमजोरी है
जिसका फायदा भ्रष्ट तंत्र उठाता जाता है
और मैं आम आदमी यूं ही
सब्जबागों में पिसा जाता हूँ
साठ साल से खुद को छलवाने की जो आदत पड़ी
उससे ना उबर पाता हूँ
मगर किसी दूजे को छह साल भी
ना दे पाता हूँ
जो मेरे लिए लड़ने को तैयार है
जो मेरे लिए सब करने को तैयार है
उसे ही साथ की जमीन ना दे पाता हूँ
फिर क्यों मैं बार बार चिल्लाता हूँ
फिर क्यों मैं बार बार घबराता हूँ
फिर क्यों मैं बार बार दोषारोपण करता हूँ
जब आम होते हुए भी आम का साथ ना देता हूँ
नयी परिपाटी को ना जन्मने देता हूँ
ये कैसा आम आदमी का आम आदमी से नाता है
जो आम को आम बने रहने के काम ना आता है
इसीलिए सोचता हूँ
जाने कैसा मेरा मुझसे लिजलिजा नाता है
बस लकीर का फ़क़ीर बनना ही मुझे आता है
वक्त ही बतायेगा इन सवालों के जवाब...
जवाब देंहटाएंलिजलिजा नाता ??
जवाब देंहटाएंऐसा क्यों कह रहे !
भाव प्रवण रचना !!
गहरी रचना, अपने से अपना सा नाता।
जवाब देंहटाएंBAHUT KHUB
जवाब देंहटाएंso sweet .
जवाब देंहटाएंbahut sunder .
जवाब देंहटाएंजब आम आदमी भीतर मुड़ता है , सार्थक परिणाम मिलते हैं।
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