रात की लहरों पर चढती उतरती कोई अरदास
प्रेम तो मानो तेरे मेरे होठों की कोई अबूझी प्यास
दिन की नर्तन करती परछाइयों का कोई शहर
प्रेम तो मानो तेरे मेरे प्रेम की कोई भटकी लहर
भीगी रुत का कोई अनकहा गुनगुना अहसास
प्रेम तो मानो आषाढ़ में बसंत का आभास
रूप रंग से परे किसी खुदा का दीदार करता कोई दरवेश
प्रेम तो मानो किसी मस्जिद से आती सुबह की पहली अजान
जैसे खुश्बू को मुट्ठी में बाँधने की कोई जिद
प्रेम तो मानो बच्चे की चाँद को पकड़ने की कोशिश
रेशम के तागों से बुना इक ख्याल का कोई भरोसा
प्रेम तो मानो तेरे मेरे अरमानों का कोई बोसा
जलती आग की परछाइयों में हंसने का सुरूर
प्रेम तो मानो तेरी मेरी मोहब्बत का कोई गुरूर
इक साँस से निकलती आस की कोई आवाज़
प्रेम तो मानो सप्त सुरों पर बजता कोई साज
बहुत ख़ूबसूरत भावपूर्ण प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंप्रेम की निभिन्न परिभाषा अपने में समेंटे हुए..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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इसे साझा करने के लिए आभार।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-04-2014) को ""वायदों की गंध तो फैली हुई है दूर तक" (चर्चा मंच-1590) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जैसे खुश्बू को मुट्ठी में बाँधने की कोई जिद
जवाब देंहटाएंप्रेम तो मानो बच्चे की चाँद को पकड़ने की कोशिश ...
जिद्द तो दोनों ही हैं पूरी नशी होनी पर फिर भी दिल कहन मानता है ...
खूबसूरत प्रेम अभिव्यक्ति
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