सोचती हूँ
गुम हो जाऊँ भीड़ में
समेट लूँ वैसे ही
जैसे कछुआ समेटता है
अपने अंगों को अपने अन्दर
और ऊपर रह जाती है
एक सपाट खुरदुरी शिला सी
क्योंकि
फर्क सिर्फ खुद को पड़ता है
खुद के होने या न होने का
दूसरों के लिए तो हम सदा ही
एक जरूरत भर की वक्ती पहचान रहे
ऐसे में सिर्फ खुद के लिए जब
एक आकाश बनाओ या नहीं
किसी पर फर्क नहीं पड़ना
सिर्फ स्वयं की संतुष्टि का आकाश
और उसमे विचरण करता खुद का वजूद
कौन सा आकाश पर अपने नक्स छोड़ पाता है
जो प्रयत्न के रेशों पर लिखी जाए इबारत ज़िन्दगी की
पहले भी तो गुमनाम था मज़ार मेरा
कौन था जो जलाता था दीया यहाँ आशिकी का
फिर अब कौन सा फर्क पड़ जाना है
कम से कम खुद की खुद से होती जद्दोजहद से तो निजात पा लूँगी
और कर दूँगी प्रमाणित ...........
जो दूर तक रौशनी दे वो दीप नहीं हूँ मैं
आँधियों में भी न बुझे वो दीप नहीं हूँ मैं
क्योंकि
भीड़ में भी अकेली हूँ मैं
फिर अकेलेपन में ही जब जीना है तो
क्यों दुर्गम किलों को भेदूँ
क्यों न अपने अस्तित्व की देगची में स्वयं को खोजूँ मैं ...
गहरे भाव...जब तक 'मैं' का भाव है तब तक अकेलापन रहेगा ही कोई भीड़ में रहे या नहीं...
जवाब देंहटाएंवाह , खूबसूरत अभिव्यक्ति है !!
जवाब देंहटाएंआपकी खासियत यह है दीदी कि आप भावनाओं को व्यक्त करने वाले शब्द ढूंढ लाती हैं
Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ..कल्पना नहीं कर्म :))
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-04-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा " मूर्खता का महीना " ( चर्चा - 1571 ) में दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
ओह। ………… गहरी संवेदना समेटे है आपकी ये रचना।
जवाब देंहटाएंसंसार में स्त्री अकेलेपन को प्रदशित करती हुई रचना..............विचारणीय....बहुत खूब............
जवाब देंहटाएंअकेली ही होती है स्त्री....मनोभाव को व्यक्त करती रचना
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील और प्रभावी रचना...
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना बधाई
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