बुझते चिराग की लौ सुना है ज्यादा टिमटिमाती है …………मगर यहाँ तो बिना टिमटिमाये ही लौ बुझ गयी……अब मैं हूँ और मेरी तन्हाइयाँ ………सोचती हूँ क्या बात करें हम ? ना ना ………किसी बिखरी याद को नहीं समेटना अब ………ना ही आगत का सोचना अब …………और वर्तमान में कहने को कुछ बचा नहीं …………ऐसे में अब मै हूँ और मेरी तन्हाइयाँ मुझसी ही तन्हा ……एक बिना सोच का , बिना बात का , बिना लक्ष्य का सफ़र तय करते हुये्………यूँ भी गुजरा करते हैं ज़िन्दगी के पन्ने एक अकथ कहानी से
अच्छी खासी तो जल रही है आपके भीतर जिन्दगी की लौ..हमें तो उसका प्रकाश भी दीख रहा है..ऊपर ऊपर देखा जाये तो हर सफर बिना लक्ष्य का ही होता है, सब का अंत एक ही स्थान पर होता है..पर गहराई में देखें तो कोई है जो आपका हाथ पकड़ कर लिए चलता है...एक क्षण के लिए भी वह हमें अकेला नहीं छोड़ता...यह तन्हाईयाँ भी सबको नसीब नहीं होतीं..इन्हें ही साधन बना सकता है कोई..
जवाब देंहटाएंजिंदगी की लौ यूं ही जीवांत रहे
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