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रविवार, 31 अगस्त 2014

बेबसी के कांटे

बेबसी के कांटे जब आँचल से उलझते हैं 
हम और उन पर पाँव रख रख के चलते हैं 
जुबाँ पर रख के तल्खियों के स्वाद 
अजनबियत का ओढ लिबास संग संग चलते हैं 

जाने किसे दगा देते हैं जाने किससे दगा खाते हैं 
हम बन के इक नकाब जब चेहरों पे पडते हैं 
खानाबदोशी के इकट्ठे करके सब सामान 
उनकी अजनबियत को झुक झुक सलाम करते हैं 

कैफियत दिल की न पूछ अब जालिम
रोज सिज़दे में सिर झुका जहाँ इबादत करते हैं
 खुदा न बनाया न बुत ही कोई सजाया 
यूँ उनकी याद के ताजमहल को गले लगाया करते हैं 

7 टिप्‍पणियां:

  1. खानाबदोशी के इकट्ठे करके सब सामान
    उनकी अजनबियत को झुक झुक सलाम करते हैं
    ...वाह..बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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