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शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

और नींद है कि टूटती ही नहीं

गाँव खो रहे हैं 
शहर सो रहे हैं 
और नींद है कि टूटती ही नहीं 

विकास के पहिये ने 
रेत दी हैं गर्दनें 
मगर लहू है कि कहीं दिखता ही नहीं 

उम्मीदों के आकाश 
चकनाचूर हो रहे हैं 
और अच्छे दिन की आस है कि टूटती ही नहीं 

शस्त्रागार में शस्त्र हैं बहुत 
मगर चलाने के हुनर से नावाकिफ हैं जो 
नहीं जानते चक्रव्यूह भेदने की विधा 

अब और नहीं 
अब और नहीं 
अब और नहीं 
कहते कहते गुजर गयीं सदियाँ 
मगर तख्तापलट है कि होता ही नहीं 

शायद यही है  वजह 
कि अब गुंजाईश को जगह बची ही नहीं 
अभिमन्यु भेदना है इस बार चक्रव्यूह तुम्हें ही .........मरना हासिल नहीं ज़िन्दगी का 

रविवार, 25 जनवरी 2015

ये कैसा बसंत आया ...........

ये कैसा बसंत आया सखी री 
न आम के नए बौर आये 
न कोयल ही कुहुकी 
न सरसों ही खिली 
न पी कहाँ पी कहाँ कह 
पपीहे ने शोर मचाया 
ये कैसा बसंत आया सखी री 

शीत लहर ही अपने रंग दिखाए 
अबके न अपने देस जाए 
जाने कौन पिया इसके मन भाये 
जो ये खेतिहरों को रही डराय 
ये कैसा बसंत आया सखी री 

न मन में उमंग उठी 
न गोरी कोई पिया मिलन को चली 
न कंगना कोई खनकाय 
न पायल कोई छनकाय 
जो मतवाली हो ऋतु बसंत 
प्रेमियों को देती थी भरमाय 
ये कैसा बसंत आया सखी री 
ये कैसा बसंत आया ...........


शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

कभी कभी लगता है बहुत खडूस हूँ मैं .........

कोई बेचारा अपना हाल -ए-दिल बयां करना चाहता है 
और मैं हूँ कि सिरे से ही नकार देती हूँ 
वो दिल की लगी कहना चाहता है 
मैं दुत्कार देती हूँ 
आधी रात फ़ोन घनघनाता है 
मैं ब्लाक कर देती हूँ 
अपनी आवारगी में दिल्लगी कर जाने क्या बताना चाहता है 

मैं शादीशुदा दो बच्चों की अम्मा 
वो अकेला चना बाजे घना 
कैसे समझ सकता है ये बात 
चाहत के लिए अमां यार मौसम तो दोनों तरफ का यकसां होना जरूरी है
 
वो इतना न समझ पाता है और गलती कर बैठता है 
जल्दबाजी में हाथ के साथ दिल भी जला लेता है  

अजब सिरफिरापन काबिज है मेरी फितरत में 
कभी कभी लगता है बहुत खडूस हूँ मैं .........

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

हिंदी चेतना में

इस बार हिंदी चेतना के जनवरी - मार्च अंक में मेरे कविता संग्रह ' 

बदलती सोच के नए अर्थ ' की संगीता स्वरुप जी द्वारा लिखी समीक्षा पढ़िए






सोमवार, 5 जनवरी 2015

दानव का जड़ से अंत

काट कर शरीर का सडा गला अंग 
संभव है जिंदा रह पाना 
मगर 
उस अंग की उपयोगिता का अहसास 
खुरचता रहता है उम्र भर 
ज़ेहन की दीवारों को 

अपंगता स्थायी होती है 
और विकल्पों के माध्यम से गुजरती ज़िन्दगी 
मोहताजगी का इल्म जब जब कराती है 
बेबसी के कांटे हलक में उग आते हैं 
तब असह्य रक्तरंजित पीड़ा शब्दबद्ध नही की जा सकती 

मगर मजबूर हैं हम 
जीना जरूरी जो है 
और जीने के लिए स्वस्थ रहना भी जरूरी है 
नासूर हों या विषाक्त अंग 
काटना ही है अंतिम विकल्प 
फिर शरीर हो , रिश्ते हों ,जाति हो , समाज हो या धर्म 

धर्म मज़हब सीमा और इंसानियत के नाम पर होती हैवानियत 
बुजदिली और कायरता का प्रमाण हैं 
ये जानते हुए भी 
आखिर कब तक नासूर को जिंदा रखोगी  .........ओ विश्व की महाशक्तियों 

दानव का जड़ से अंत ही कहानी की सार्थकता का अंतिम विकल्प है ........जानते हो न !!!