मैंने तह करके रख दिए सारे सपने
और अब धूप दिखा रही हूँ खाली मर्तबान को
पीने को पानी होना जरूरी तो नहीं
प्यास के समन्दरों में खेलती हूँ पिट्ठुओं से
रूह खामोश रहे या शोर करे
कतरे सहेजने को नहीं बची मदिरा पैमानों में
ए री मैं गिरधर की दासी कह
अब कोई मीरा न रिझाती मोहन को
इश्क की कुदालें छीलती हैं सीनों को
तब मुकम्मल हो जाती है ज़िन्दगी मेरी
आ महबूब मेरे चल जी ले कुछ पल मेरी तरह .......मेरे साथ ...... फिर इस रात की सुबह हो के न हो
और अब धूप दिखा रही हूँ खाली मर्तबान को
पीने को पानी होना जरूरी तो नहीं
प्यास के समन्दरों में खेलती हूँ पिट्ठुओं से
रूह खामोश रहे या शोर करे
कतरे सहेजने को नहीं बची मदिरा पैमानों में
ए री मैं गिरधर की दासी कह
अब कोई मीरा न रिझाती मोहन को
इश्क की कुदालें छीलती हैं सीनों को
तब मुकम्मल हो जाती है ज़िन्दगी मेरी
आ महबूब मेरे चल जी ले कुछ पल मेरी तरह .......मेरे साथ ...... फिर इस रात की सुबह हो के न हो
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-02-2015) को "प्रसव वेदना-सम्भलो पुरुषों अब" {चर्चा - 1884} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इश्क की कुदालें छीलती हैं सीनों को
जवाब देंहटाएंतब मुकम्मल हो जाती है ज़िन्दगी मेरी
सुंदर रचना।
बहुत ही सुंदर रचना , इश्क की कुदाले सीने में चलती ही नहीं बल्कि दिल में काफ़ी जख्म भी कर देती है ...
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंक्या बात है ........भावपूर्ण रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना। बधाई। निशब्द हूँ।
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