जरूरी तो नहीं होता हमेशा
घडी की सुइयों संग संग रक्स करना
कभी कभी बगावत भी जरूरी होती है
अब वो समय से हो या खुद से
आज मिला दिया है
सुर से सुर
अपने अंतर्मन से
नहीं सरकना आज मुझे घडी की सुइंयों संग
कोई इन्कलाब तो आ नहीं जाएगा
जो वक्त पर खाना न बना सकूँगी
जो घर के काम न समेट सकूँगी
जो आँगन को न बुहार सकूँगी
जो आज खुद से कुछ देर बतिया लूंगी
क्या होगा ज्यादा से ज्यादा
बस कुछ देर .......
और इतनी सी देर से नहीं बदला करतीं ग्रहों की चालें
रूह की थकान उतारने को
जरूरी होते हैं कुछ ख़ास ठीये
क्या हुआ जो उम्र को लपेट दबा लिया कांख में
और लगी कलाबाजियां खाने
लौटने लगी फिर से
किसी अदृश्य काल में
जहाँ बर्फ के गोले खा चटकारा लगा सकूँ
खट्टी मीठी गोलियों और इमली के स्वाद संग
कुछ देर सब कुछ भूल सकूँ
तीखी हरी मिर्च के बाद भी
तेज मसाले और नींबू डलवा
आँख से पानी बहाते
जुबाँ से सी - सी करते
स्वाद के हिंडोले पर झूल सकूँ
वर्तमान से अतीत तक विचरण करने से
नहीं टूटा करतीं परम्पराएं
बस जीने को जरूरी
चार मौसमों से परे
एक बार फिर मिल जाता है पांचवां मौसम
जो भर जाता है
उमंगों के ताज में जीने की ललक
तो क्या हुआ जो
कुछ पल खुद को सौंप दिए जाएँ
और समय से विपरीत बहा जाए
उलटे पाँव चलने का हुनर सबको नहीं आता
नियम के विपरीत चलकर
जीने का भी अपना मज़ा हुआ करता है
ज़िन्दगी का स्वाद बदलने को
जरूरी है
एक कुंजी कमर में लटकानी
बगावत के मौसम की भी ..........
आखिर कब तक तहजीबों को दुशाला ओढ़ाए कोई ?
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