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चकनाचूर होकर टूटी रात की किरचें
चकनाचूर होकर टूटी रात की किरचें
न हथेलियों में चुभेंगी न जिस्म में
दिल और रूह की नालिशबंदी में
जरूरी तो नहीं कतरा लहू का निकले ही
चुभन ने बदल दी हैं दरो - दीवार की मश्कें
अब मोहब्बत से मोहब्बत करने के रिवाज़ कहाँ ?
तभी
मेरी रात के खातों में दिनों का हिसाब लिपिबद्ध नहीं ...
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दिन नदीदों सा अक्सर मुंह बाए चला आता है
रातें उनींदी सी अक्सर मुंह छुपाए चली जाती हैं
जाने कैसी पकड़ी है सुबहो शाम ने जुगलबंदी
बेख़ौफ़ ज़िन्दगी का हर तेवर नज़र आता है
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