जीने की चाहत में मरना जरूरी था
फिर भी ज़िन्दगी से मिलन अधूरा था
सच ही तो है
जी लिए इक ज़िन्दगी
फिर भी
इक खलिश जब उधेड़ती है मन के धागे
चिंदी चिंदी बिखर जाती है पछुआ के झोंके से
मजबूरी में जीने और इच्छानुसार जीने में कुछ तो फर्क होता है
हाँ , समझौतों के लक्ष्मण झूलों पर झूलते
जब ज़िन्दगी गुजरती है
तब प्रश्न उठना लाजिमी है
वैसे क्या ये सच नहीं है
कि
यहाँ मनचाहा जीवन कभी कोई जीया ही नहीं
सभी अपनी आधी अधूरी चाहतों की
अतृप्त प्यास से जकड़े ही कूच कर गए
खाली बर्तनों की टंकारें खोखली ही हुआ करती हैं
ऐसे में
क्या सच में जिए ?
प्रश्न मचा देता है हलचल
और हम हो जाते हैं निशब्द ...
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-11-2015) को "हर शख़्स उमीदों का धुवां देख रहा है" (चर्चा-अंक 2167) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
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