डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी की नज़र से मेरे पहले उपन्यास 'अँधेरे का
मध्य बिंदु' की समीक्षा विमर्श के नए आयाम खोलती हुई एक समीक्षक की दृष्टि
का व्यापक कैनवस है जिसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है .
http://pustakvimarsh.blogspot.in/2016/03/blog-post.html
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स्नेह-विश्वास के पारम्परिक आधार पर लिव-इन का निर्माण
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध किसी कृति के केंद्र में हों तो उसमें स्वतः ही अनेक विमर्श
जन्म लेने लगते हैं और यदि उस कृति में लिव-इन रिलेशन जैसी अवधारणा हो तो संभावनाओं
के कई-कई आयामों को तलाशा जाने लगता है. अपनी पहली औपन्यासिक कृति ‘अँधेरे का मध्य बिंदु’
में वंदना गुप्ता ने ऐसे विषय को चुना जो
पश्चिम सभ्यता-संस्कृति के कारण उन्मुक्त संबंधों, रिश्तों की वकालत करता है. पश्चिम आयातित इस सम्बन्ध ने भारतीय
समाज में भी अपनी जड़ों को फैलाना शुरू कर दिया है, बावजूद इसके भारतीय समाज में इसे
सहजता से स्वीकार नहीं किया जा रहा है. इसके पीछे लिव-इन रिलेशन में उन्मुक्त संबंधों
का निर्माण, पश्चिमी यौन-संस्कृति
का अनुपालन, गैर-जिम्मेवारी
का भाव पैदा होना, रिश्तों के नामकरण से दूर महज शारीरिक सुखों का उपभोग करना आदि
माना जा रहा है. यद्यपि पारिवारिक सहमति से निर्मित विवाह संस्था का स्वरूप वर्तमान
युवा-वर्ग ने प्रेम-विवाह के द्वारा बहुत हद तक परिवर्तित किया है तथापि लिव-इन रिलेशन
के द्वारा वे विवाह स्वरूप को खंडित कर पायेंगे, कहना मुश्किल प्रतीत होता है.
लिव-इन रिलेशन के प्रति समाज की सोच को जानते हुए भी वंदना जी ने अपनी पहली ही
कृति में इस विषय पर कलम चलाई, इसे अवश्य ही प्रशंसनीय कहा जा सकता है. उपन्यास की कथा एक आदर्शात्मक
स्थिति में ही गतिमान रहते हुए इस संबंध के सुखद अंत को परिभाषित करके ही रुकी. इसे
संभवतः लेखिका का वो भय कहा जा सकता है जो उनकी स्वीकारोक्ति ‘लिव-इन संबंधों की घोर विरोधी होते हुए भी जाने क्यों कलम ने
यही विषय चुना. शायद यही मेरी सबसे बड़ी परीक्षा थी,
जिन संबंधों को
मैं कभी स्वीकार नहीं कर सकती उसी पर कलम चलाई जाए जो आसान कार्य नहीं था.’
में परिलक्षित होता है. कथा नायक रवि और
कथा नायिका शीना के संबंधों का, रिश्तों का निरंतर सुखमय रूप से चलते रहना,
उनके आपसी स्नेह,
विश्वास, समन्वय, सहयोग का बने रहना किसी अन्य दूसरे लिव-इन रिलेशन रिलेशन की
सफलता की गारंटी नहीं माना जा सकता है. जिस विश्वास, रिश्ते की गरिमा, अपनेपन, सहयोग की भावना का विकास इन दोनों के अनाम रिश्ते में दिखाया
गया है, वो किसी भी
सम्बन्ध की सफलता होते हैं. संभवतः लेखिका के मन-मष्तिष्क में खुद के इस सम्बन्ध के
विरोधी होने का प्रतिबिम्ब बना हुआ था और इसी कारण से जाने-अनजाने वे लिव-इन रिलेशन
की कमियों, दोषों को प्रदर्शित
करने से बचती रहीं हैं. एकाधिक जगहों पर जहाँ भी ऐसा अवसर आया वहाँ अपनी मौलिकता से
लेखिका ने उन्हें उभरने का अवसर नहीं दिया. ऐसे अवसरों के अलावा उपन्यास की कथा में
अन्य दूसरे वैवाहिक संबंधों को कटुता, अहंकार, झगड़े, अविश्वास से भरे दिखाये जाने के पीछे लिव-इन रिलेशन को सफलता
और वैवाहिक संबंधों को असफलता की तरफ ले जाने वाला समझ आता है. सदियों से चली आ रही
विवाह संस्था में समय के साथ कई-कई विसंगतियाँ देखने को अवश्य मिली हैं किन्तु इसके
बाद भी न केवल भारतीय समाज में वरन विदेशी समाज में भी वैवाहिक संबंधों को सहज मान्यता
प्राप्त है. ऐसे समाजों में बहुतायत दंपत्ति ऐसे हैं जो ठीक उसी तरह का जीवन-निर्वहन
करते हुए अनुकरणीय बने हैं जैसे कि रवि और शीना बने.
कथा के बीच वंदना जी ने एकाधिक अवसरों पर जानकरी देने का अनुकरणीय कार्य किया है.
भले ही कई पाठकों को कहानी में मध्य में समाजोपयोगी तथ्यों का आना बोझिल अथवा अनुपयोगी
जान पड़े किन्तु समालोचना की दृष्टि से इसमें और विस्तार की सम्भावना दिखती है. रवि
शीना के संबंधों के आरम्भ में परिवार नियोजन की चर्चा,
शीना के एचआईवी संक्रमित हो जाने पर चिकित्सकीय
परामर्श, आदिवासी परम्परा
का उल्लेख, कतिपय असफल
लिव-इन संबंधों की चर्चा आदि को इस रूप में देखा जा सकता है. इसके अलावा वंदना जी की
लेखनी की प्रशंसा इस रूप में भी की जानी चाहिए कि लिव-इन रिलेशन जैसा विषय चुनने के
बाद भी वे रवि शीना के संबंधों का अत्यंत शालीनता के साथ उत्तरोत्तर विकास करती रही
हैं. उनके पास इन संबंधों के नाम पर उन्मुक्तता, शारीरिक संसर्ग, मौज-मस्ती आदि के प्रस्तुतीकरण का विस्तृत कैनवास था किन्तु
इसके उलट उनकी संतुलित लेखनी का परिचय मिला है. परंपरागत भारतीय समाज इन संबंधों को
किस रूप में स्वीकारेगा, आधुनिकता में रचा-बसा युवा-वर्ग इसका विस्तार किस तरह करेगा,
जिम्मेवारी से मुक्त इस सम्बन्ध में जिम्मेवारी
का कितना भाव जागृत होगा ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है. वर्तमान में जिस तरह से
विवाह संस्था में विसंगतियाँ देखने को मिल रही हैं, कुछ हद तक ऐसा ही लिव-इन रिलेशन में भी हो रहा है. यदि इन संबंधों
में सब कुछ सामान्य अथवा अनुकरणीय होता तो लिव-इन संबंधों के बहुतायत मामलों में पुलिसिया
कार्यवाही न हो रही होती.
भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, उसे भविष्य पर छोड़ते हुए वंदना जी की कलम की,
उनके विषय चयन की,
भाषा की सरलता की,
कथ्य की सहजता की,
कथा गतिशीलता की,
शाब्दिक चयन की,
प्रस्तुतीकरण की सराहना करनी ही पड़ेगी. कृति
की सफलता इसी में है कि या तो वो समुचित, सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करे अथवा संभावनाओं के,
विमर्श के नए द्वार खोले. अंत में लालित्य
जी के अनुसार सबको पसंद आने वाले वाक्य ‘तुम्हें फोल्ड कर के
अपनी पॉकेट में रख लूँ जहाँ-जहाँ जाऊँ वहाँ-वहाँ तुम मेरे साथ हो.’
को रवि शीना संबंधों के सापेक्ष प्रेमपरक
कहा जा सकता है, इसकी प्रेम
तासीर में मदहोश हुआ जा सकता है. इसके ठीक उलट यदि इसी वाक्य को स्त्री-विमर्श के,
पति-पत्नी के संबंधों के नजरिये से देखा जाये तो स्त्री के प्रति गुलाम मानसिकता को,
पुरुष द्वारा उसे अपनी जेब में रखे रहने
को परिलक्षित करने लगता है. सहमतिपूर्ण वैवाहिक सम्बन्ध,
प्रेम-विवाह,
लिव-इन रिलेशन आदि कुछ इसी तरह के नजरिये
को समेटे समाज में विचरण कर रहे हैं, जो आपसी प्रेम, स्नेह, सहयोग, समन्वय, विश्वास के आधार पर सफल, असफल सिद्ध हो रहे हैं.
समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : अँधेरे का मध्य बिंदु (उपन्यास)
लेखिका : वन्दना गुप्ता
प्रकाशक : एपीएन पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली
संस्करण : प्रथम, 2016
ISBN :
978-93-85296-25-3
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-03-2016) को "सूरज तो सबकी छत पर है" (चर्चा अंक - 2296) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'