तुमने कहा
गर्दन झुकाओ और ढांप लो अपना वजूद
कि
अक्स दिखाई न दे किसी भी आईने में
मैंने हुक्मअदूली करना नहीं सीखा
वक्त रेगिस्तान की प्यास सा
बेझिझक मेरी रूह से गुजरता रहा
सदियाँ बीतीं और बीतती ही गयीं
और आदत में शुमार हो गया मेरी बिना कारण जिबह होना
नींद किसी शोर खुलती ही न थी
जाने कौन सी चरस चाटी थी ...
फिर तुमने कहा
जागो , उठो , बढ़ो , चलो
कि सृष्टि का उपयोगी अंग हो तुम
कि
तुम्हारे बिना अधूरा हूँ मैं
न केवल मैं
बल्कि सारी कायनात
कि
तुम्हारे होने से ही है मेरा अस्तित्व
मैं और तुम दो कहाँ
समता का नियम लागू होता है हम पर
और मैं जाग गयी
उठ गयी चिरनिद्रा से
फिर क्यों नहीं तुम्हें भाता मेरा जागरूक स्वरुप
फिर तुम पति हो , पिता , भाई या बेटे
सुलाया भी तुमने और जगाया भी तुमने
तो भला बताओ मेरा क्या दोष?
फिर भी
मैं निर्दोष जाने क्यों होती रही तुम्हारे दोषारोपण की शिकार
कशमकश में हूँ ...
डिसक्लेमर :
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-07-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2396 दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जो सदा दूसरों पर निर्भर रहेगा वह चाहे कोई भी क्यों न हो सदा ही दोषी बताया जाता रहेगा, जागने का अर्थ है अपने आप पर निर्भर होना, अपना मुल्यांकन स्वयं करना, हर आत्मा को यही सीखना होगा.
जवाब देंहटाएंbahut badiya ..
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