जाने कितने सच इंसान अपने साथ ही ले जाता है . वो वक्त ही नहीं मिलता उसे या कहो हिम्मत ही नहीं होती उसकी सारे सच कहने की . यदि कह दे तो जाने कितना बड़ा तूफ़ान आ जाए फिर वो रिश्ते हों , राजनीति हो या फिर साहित्य ....
साहित्य
के सच कहने वाले अक्सर अलग थलग पड़ जाते हैं , अछूत की सी श्रेणी में आ
जाते हैं और क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो अकेला रहना नहीं चाहता
इसलिए बन जाता है नीलकंठ और धारण कर लेता है अपने गले में गरल , जिसे उम्र
भर न निगल पाता है और न ही उगल ....
ये
है साहित्यजगत का सच , उसका असली चेहरा . शायद यही कारण है यहाँ अक्सर गुट
बनते हैं , गुटबाजी होती है . खेमे बनते हैं , संघ बनते हैं . आखिर जिंदा
रहने को साथ का टॉनिक जरूरी होता है . उससे और कुछ हो न हो अन्दर का मैं तो
संतुष्ट हो ही जाता है . हाँ सराहा जा रहा हूँ मैं . हाँ पहचान बन गयी है
मेरे लेखन की . तो क्या हुआ जो जुगाड़ का दांव खेला और अन्दर कर लिए दो चार
पुरस्कार . जिंदा रहना जरूरी है . सांस लेना जरूरी है फिर उसके लिए कुछ भी
क्यों न करना पड़े . आजकल कौन है जो तलवे नहीं चाटता . तो क्या हुआ यदि
हमने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया . उससे गंगा मैली थोड़े न हो गयी . बस
जीने को कुछ साँसें मयस्सर हो गयीं . वैसे भी कहा गया है ... सांस है तो आस
है .
ऐसे
सच का क्या फायदा जो भ्रम में भी न जीने दे . जीने के लिए भ्रमों का होना
जरूरी है .फिर गुजर जाती है ज़िन्दगी सुकून से बिना किसी जद्दोजहद के . वैसे
भी नाम होना जरूरी है फिर सुमार्ग पर चलो या कुमार्ग पर . और साहित्य में
कोई कुमार्ग होता ही नहीं . सभी सुमार्ग ही हैं आखिर हमारे पूर्वज बनाकर गए
हैं तो कैसे संभव है वो कभी कुमार्ग पर चले हों और उनका अनुसरण करना ही
हमारे देश की संस्कृति है .
जिस कार्य को करने से संतोष मिले , दिमाग शांत रहे और हर मनोकामना पूरी होती जा रही हो वो कैसे गलत हो सकता है भला . वो कहते हैं न काम वो ही करना चाहिए जिससे मानसिक शांति मिले . अब वो ही कर रहे हैं तो हंगामा है क्यों बरपा . चोरी तो नहीं की डाका तो नहीं डाला . अपना मार्ग ही तो चुना है . अब कौन सच से आँख मिला खुद को निष्कासित करे साहित्यजगत से . ये तो खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर रखना हुआ . हाँ नहीं तो ........
डिसक्लेमर :
जिस कार्य को करने से संतोष मिले , दिमाग शांत रहे और हर मनोकामना पूरी होती जा रही हो वो कैसे गलत हो सकता है भला . वो कहते हैं न काम वो ही करना चाहिए जिससे मानसिक शांति मिले . अब वो ही कर रहे हैं तो हंगामा है क्यों बरपा . चोरी तो नहीं की डाका तो नहीं डाला . अपना मार्ग ही तो चुना है . अब कौन सच से आँख मिला खुद को निष्कासित करे साहित्यजगत से . ये तो खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर रखना हुआ . हाँ नहीं तो ........
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-08-2016) को "ख़ुशी से झूमो-गाओ" (चर्चा अंक-2419)"मन को न हार देना" (चर्चा अंक-2421) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गहरी चोट ..
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