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मंगलवार, 30 मई 2017

और देखो मेरा पागलपन

वो कह गए
"कल मिलते हैं "
मगर किसने देखा है कल
शायद कशिश ही नहीं रही कोई
जो ठहर जाता , जाता हुआ हवा का झोंका
या रही ही नहीं वो बात अब प्रेम में हमारे
जो रोक लेती सूरज को अस्ताचल में जाने से
या फिर बन गए हैं नदी के दो पाट
अपने अपने किनारों में सिमटे
तभी तो आज नहीं हुआ असर
मेरी सरगोशियों में
मेरी सर्द आवाज़ में
मेरी ज़र्द रूह में
जो बन जाती तुम्हारे पाँव की बेडी
जब मैंने कहा
थोड़ी देर और रुक जाओ
शायद तुम जान ही नहीं पाए
कितनी अकेली थी मैं उन लम्हों में
तुम्हारे साथ होते हुए भी ...........
ये मोहब्बत की दुनिया इतनी छोटी क्यों होती है ......जानां ?


और देखो मेरा पागलपन
मैंने तो आज की आस की देहरी पर ही उम्र बसर करने की ठान ली है .........

डिसक्लेमर :
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta

सोमवार, 15 मई 2017

उम्मीद से ज्यादा है

ये मेरे लिए उम्मीद से ज्यादा है :) :)
 
अभी दो दिन पहले मैंने सच्ची आलोचना पर ये पंक्ति लिखी थी (सच्ची आलोचना सहना अच्छा लेखक बनने की दिशा में पहला कदम है)और आज उसका नमूना यहाँ उपस्थित है ........ऐसे की जाती है सच्ची आलोचना :

यश पब्लिकेशन से प्रकाशित "प्रश्नचिन्ह...आखिर क्यों?" पर Ashutosh Pandey द्वारा हर कविता पर उनके विचार उनके मुख से इस विडियो में सुनिए ......एक कवि हो या लेखक यही जानना चाहता है जो उसने कहा वो कितना पहुँचा और क्या अच्छाई या कमी रही ताकि आगे वो अपने लेखन में उसी के हिसाब से सुधार कर सके. अब ये उस पर निर्भर करता है वो प्रतिक्रिया को कितना सकारात्मक लेता है और कितना नकारात्मक




विडियो इस लिंक पर क्लिक करके सुन सकते हैं :

https://www.facebook.com/sushma.cheshta/videos/1432601016778647/