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मंगलवार, 1 अगस्त 2017

ये मेरी हत्या का समय है

ये मेरी हत्या का समय है
न कोई पूर्वाभास नहीं
कोई दुर्भाव नहीं
बस जानता हूँ
तलवारों की दुधारी धार को

मैं विवश हूँ
स्वीकारने को नियति
धिक्कारने को प्रगति
जिसकी बिनाह पर हो रहे हैं कत्ले आम

धरोहरें सहमी खड़ी हैं
अपनी बारी की प्रतीक्षा में
बाढ़ में बहते धान की चीखें कब किसी कान तक पहुंची हैं

दुर्भावना मेरा स्वभाव है
और सम्भावना उनका
तो सोच लो
क्या होगा हश्र
या कहूँ
यही है सच
ये मेरी हत्या का समय है


डिसक्लेमर :
(ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta)

2 टिप्‍पणियां:

  1. जी यही सब हो रहा है इस वक्त दुनिया द्वंद ही द्वंद है अंदर बाहर हर ओर।
    दुर्भावना सद्भावना पर हावी है, हर कोई भाग रहा है मानसिक द्वंद हर इंसान को हत्या के लिए उकसा रहा है। गजब का द्वंद और चिंतन व्यक्त किया है।

    आशुतोष पाण्डेय

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-08-2017) को गये भगवान छुट्टी पर, कहाँ घंटा बजाते हो; चर्चामंच 2685 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

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