लड़की बोल रही है चट्टान, लिख रही है दूब...लड़की खोज रही है संसार, पा रही
है खार...वाकिफ नहीं हकीकत के प्रवाह से ...लड़की बह रही है नदी सी समय के
चक्रव्यूह में...नहीं जानती, तोड़ी जायेगी, मरोड़ी जाएगी, काटी जायेगी, छिली
जायेगी, तपाई जायेगी तब बनेगी बांसुरी जिस पर गुनगुनायी जायेगी कोई एकतरफा
प्रेमधुन...प्रेम, वो ही जिसके पलड़े कभी सम नहीं होते, एक तरफ झुकाव ही
जिसकी नियति होती है, जिसमे देह बजे सितार सी उनके हाथों, उनकी धुन पर नाचे
ता थैया थैया थैयी ...और वो रात और दिन के क्रम बदल दें उसके लिए..ये वक्त की खामोशियाँ हैं, कौन सुनता है? बस चुप रहो और छू सको तो छू लो अंतर्मन के ख्याली पुलाव तक है तुम्हारी नियति!!!
दिन बदलने से बदलते हैं...सुन रही हो न? हाँ, तोड़ो अपने पैर में पहना
तोडा, गर तोड़ सको...लड़की छूमंतर कर दो डर के कबूतर और उड़ जाने दो आसमां
में...गूंगा बहरा होना नहीं है अंतिम विकल्प...यहाँ देह वो अजायबघर है
जिसमे गुनगुना रहा है आदिम संगीत, निकलो देह से बाहर, तोड़ो चौखट, करो लड़की
प्रयाण...महाप्रयाण से पहले!!!
फिर स्वप्न! आह कितने स्वप्न! कितनी बेड़ियाँ! कितनी कहानियाँ, कितने जन्म, कितनी मौत...साँस साँस मौत, फिर भी जिंदा है लड़की...आखिर क्यों?
स्वप्न गुनाह नहीं, स्वप्न भोर का वो तारा है जो रखता है तुममें तुम्हें जिंदा... लड़की...बचा लो खुद को...बचा लो स्वप्न को...बचा लो उम्मीद की अंतिम टिमटिमाती लौ को !!!
आकाश के कदली स्तम्भ पर टिकी है तुम्हारी सृष्टि...लड़की मत हिलाओ नींव कि दरकने पर दरक जाए तुम्हारे शहर का समूचा लहलहाता ढाँचा जो भरता है रंग इन्द्रधनुषी तुम्हारी ख्वाबगाह में...और तुम लपेट लेती हो सम्पूर्ण धरा को अपनी देह पर...धानी रंग से भर लेती हो मांग और हो जाती हो सुहागन !!!
लड़की मत मिटने दो न सृष्टि के अंतिम विकल्प को...तुम हो तो सृष्टि है...जिंदा रखो अपने पहले स्वप्न को, बनाओ उसे अंतिम स्वप्न...
आस के दरीचों में करो बागवानी...जहाँ उम्र निठल्ली बैठी रहे और तुम संवार लो ज़ुल्फ़ का उलझा बल
ये उम्र की परछाइयाँ चुकाने का वक्त है!!!
लड़की जिंदा हो रही है फलसफों में ...
©vandana gupta
फिर स्वप्न! आह कितने स्वप्न! कितनी बेड़ियाँ! कितनी कहानियाँ, कितने जन्म, कितनी मौत...साँस साँस मौत, फिर भी जिंदा है लड़की...आखिर क्यों?
स्वप्न गुनाह नहीं, स्वप्न भोर का वो तारा है जो रखता है तुममें तुम्हें जिंदा... लड़की...बचा लो खुद को...बचा लो स्वप्न को...बचा लो उम्मीद की अंतिम टिमटिमाती लौ को !!!
आकाश के कदली स्तम्भ पर टिकी है तुम्हारी सृष्टि...लड़की मत हिलाओ नींव कि दरकने पर दरक जाए तुम्हारे शहर का समूचा लहलहाता ढाँचा जो भरता है रंग इन्द्रधनुषी तुम्हारी ख्वाबगाह में...और तुम लपेट लेती हो सम्पूर्ण धरा को अपनी देह पर...धानी रंग से भर लेती हो मांग और हो जाती हो सुहागन !!!
लड़की मत मिटने दो न सृष्टि के अंतिम विकल्प को...तुम हो तो सृष्टि है...जिंदा रखो अपने पहले स्वप्न को, बनाओ उसे अंतिम स्वप्न...
आस के दरीचों में करो बागवानी...जहाँ उम्र निठल्ली बैठी रहे और तुम संवार लो ज़ुल्फ़ का उलझा बल
ये उम्र की परछाइयाँ चुकाने का वक्त है!!!
लड़की जिंदा हो रही है फलसफों में ...
©vandana gupta
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-04-2017) को "ग्रीष्म गुलमोहर हुई" (चर्चा अंक-2932) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मार्मिक रचना
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