मैं वक्त की नदी में तैरती इकलौती कश्ती ...दूर दूर तक फैले सूने पाट और ऊपर नीला आकाश...गुनगुनाऊं गीत तो तैरता है नदी की छाती पर हिलोर बनकर तो कभी हवाएं बेशक ले जाती हैं बहाकर अपने संग...शायद पहुँचे किसी मीत तक फ़रियाद बन ...तन्हाइयों के शहर में बेबसी की आवाज़ बन....शायद दर्द बह जाए टूटते तारे का रुदन बन ...सुना है जो भी कहा जाता है ब्रह्माण्ड में घूमता रहता है अनंतकाल तक ...मेरे मीत! अनंतकाल में कोई काल तो मेरा होगा न जिसमें हो जाएगी सिन्दूरी मेरी पूरी उम्र ...एक रुके हुए फैसले की अर्जी ख़ारिज मत कर देना...तन्हाइयों से बौखलाया शहर सिसक रहा है, दम तोड़ रहा है ...कि कहीं कोई सितार तो बजे और रूह हो जाए अलमस्त कलंदर सी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-05-2017) को "उफ यह मौसम गर्मीं का" (चर्चा अंक-2982) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत खूब वंदना दी
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