मैं सो रहा था
मुझे सोने देते
चैन तो था
अब न सो पाऊंगा
और न जागा रह पाऊँगा
मझधार में जैसे हो नैया कोई
एक विशालकाय प्रेत की मानिंद
हो गया हूँ अभिशप्त
तुम्हारी बनायीं मरुभूमि में
शापित बना दिया
नहीं सोचा तुमने
अपनी महत्वाकांक्षा से ऊपर
अब झेलना है मुझे
शीत ताप और बरसात
यूँ ही सदियों तक
निर्जन में भटकता
अँधेरे से लड़ता
खड़ा हूँ निसहाय
संभव नहीं अब मुक्ति
जानता हूँ
पढ़ सको तो पढना कभी
मेरी आँखें, उनकी ख़ामोशी, उनका दर्द
जिनमें ठहर गया है पतझड़ किसी बनवास सा
देख सको तो देखना मेरा चेहरा
जिस पर वेदना का संगीत फूट रहा है
और तुम उसे बना रहे हो अपना सुगम संगीत
झाँक सको तो झांकना मेरे ह्रदय में
जिसमें तिल तिल मरता देश पूछ रहा है प्रश्न
क्या औचित्य है इस गगंचुम्बियता का
जब एक तरफ जल रही हैं श्वांसें
जब फिर टुकड़ों में बाँट रहा है देश
जब सब अपना मजहब ढूंढ रहे हैं
सब अपनी जाति पूछ रहे हैं
अबलाओं की कातर पुकार छिन्न भिन्न कर रही है
सभ्यता की अंतड़ियाँ
क्या जवाब दूं भाई .......बताओ तो जरा
सुनो कर्ज सर पर रख कर
महल नहीं बनाए जाते
छद्म राग नहीं सुनाये जाते
आडम्बर के ढोल नहीं बजवाये जाते
मगर जानता हूँ
तुम न सुनोगे
न समझोगे
न देखोगे
अहंकार के रथ पर सवार रथी को
नहीं दिखाई देती विनाशलीला
कुछ कहना बेमानी है
अच्छा सुनो
तुमने सब कुछ तो मनचाहा कर दिया
एक काम और कर देते
और कुछ नहीं तो
मेरी पीड़ा का ख्याल ही कर लेते
एक विशालकाय छतरी तो और बनवा देते
जिस पर सीधे लैंड कर जाता तुम्हारा प्लेन
तो इतिहास में थोडा और दर्ज हो जाते
इसके साथ
शायद हो जाता बचाव कुछ तो
तुम्हारी बनायीं इस महत्वाकांक्षा का
पंछियों की बीट से, आंधी धूल और मिटटी से
मेरा क्या है
मुझे तो चढ़ा ही दिया तुमने सलीब पर
पीड़ा ही मेरा प्रायश्चित है अब शायद
आह ! नहीं जानता था
एक नयी लकीर खींचने से ज्यादा जरूरी है
वर्तमान को इतिहास से साफ़ करना
खुदा खैर करे
मैं और मेरा बीहड़
अब मोहताज हैं तुम्हारे हाथ की जुम्बिश के
मगर जान लो एक सत्य
तुम खुदा नहीं हो !!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-10-2018) को "इस धरा को रौशनी से जगमगायें" (चर्चा अंक-3147) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत गहरी रचना ।
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