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मंगलवार, 29 जुलाई 2008

तड़प

जिंदगी कहाँ तडपाती है यह तो ख़ुद तड़पती है
इसे कोई क्या समझेगा यह तो ख़ुद नासमझ है
जिंदगी हमें रुलाती नही यह तो ख़ुद रोती है
इसे कोई क्या जलाएगा यह तो ख़ुद को जलाती है
इसे कोई दर्द देगा क्या यह तो ख़ुद दर्द में जीती है
जिंदगी खामोश करती नही यह तो ख़ुद खामोश होती है
यह इम्तिहान लेगी क्या यह तो ख़ुद इम्तिहान देती है
इससे मोहब्बत कोई क्या करेगा यह तो ख़ुद मोहब्बत की मारी है
जिंदगी किसी को क्या कहेगी यह तो ख़ुद बेजुबान होती है
इसे कोई क्या समझेगा यह तो ख़ुद नासमझ है

11 टिप्‍पणियां:

  1. अपने मनोभावो को बखूबी अभिव्यक्त किया है।बढिया!!

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  2. जिंदगी किसी को क्या कहेगी यह तो ख़ुद बेजुबान होती है
    इसे कोई क्या समझेगा यह तो ख़ुद नासमझ है

    बहुत खूब

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  3. sorry for late arrival , i was on a long tour.

    This is a great poem of yours .

    great wok on the philosphy of life. very nice composition ,without getting carried away by words....

    good work ..

    bahut badhai ..

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  4. एक अलग नजर से जिदंगी की परतों को खोलती एक सुन्दर कविता।

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  5. आप वाकई बहुत अच्छा लिखती हैं ....दिल में जो भी होता है वो शब्दों के माध्यम से रचना बना देती हैं ....


    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  6. जी बहुत अच्छे से मन की बात प्रकट की है

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  7. Vandanaji,

    zindgi itni to udaas hoti nahin hai .
    zitna rula diya utni roti nahin hai.
    khair,
    rachna ke madhyam se aap to serious kar deti hain.After all choice is yours.

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