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शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या
न बुन सकी कभी तमन्नाओं के धागे
न जोड़ सकी यादों के तार कभी
न जला सकी प्यार के दिए कभी
इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
माना नही ठहरती धूप किसी भी आँगन में
मगर मेरे आँगन में तो धूप की एक
छोटी सी किरण भी न उतर सकी
भला कैसे जानूं मैं किस तरह
खिला करती है धूप आँगन में

5 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
    तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या
    न बुन सकी कभी तमन्नाओं के धागे
    न जोड़ सकी यादों के तार कभी
    न जला सकी प्यार के दिए कभी
    इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
    sunder chitr khincha hai aapne

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  2. "मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
    तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या"


    वाह, क्या बात है!



    -- शास्त्री जे सी फिलिप

    -- समय पर प्रोत्साहन मिले तो मिट्टी का घरोंदा भी आसमान छू सकता है. कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)

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  3. जिसने तम को ही देखा हो,
    वो उज्वल किरणों से डरता।
    इक आफताब की आशा में,
    उसको घुटकर जीना पड़ता ।

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  4. न जला सकी प्यार के दिए कभी
    इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
    ...बहुत अच्छी पंक्तियां.
    बधाई.
    एक शेर याद आया-
    खुद अपनेआप में ये कायनात डूब गई,
    खुद अपनी महक से ये जगमगा के उभरेगी.

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