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गुरुवार, 8 जनवरी 2009

उलझन

ये कैसी उलझन है
जिसमें उलझती जाती हूँ
जितना सुलझाने की
कोशिश करुँ
फिर भी उलझती जाती हूँ
कभी ख़ुद को चाहने लगती हूँ
कभी किसी की चाहत लगती हूँ
पर फिर भी किसी की यादों के
दायरों में सिमटती जाती हूँ
कभी उसकी यादों में होती हूँ
कभी उसको याद करती हूँ
ये यादों के भंवर में
क्यूँ रोज उलझती जाती हूँ
कभी दिल की वादी में मिलती हूँ
कभी दिल के कँवल खिलाती हूँ
फिर इक-इक फूल को
किताबों में सहेजे जाती हूँ
कभी उससे बातें करती हूँ
कभी उसकी बातें सुनती हूँ
इस सुनने सुनाने की महफिल में
क्यूँ उसके दीदार को तरसती हूँ
हाय!ये कैसी उलझन है
जिसमें उलझती जाती हूँ

4 टिप्‍पणियां:

  1. "कभी ख़ुद को चाहने लगती हूँ
    कभी किसी की चाहत लगती हूँ"

    "फिर इक-इक फूल को
    किताबों में सहेजे जाती हूँ"

    बहुत खूब, गहरे अहसास कराती कविता| उलझन को बेहतरीन ढंग से चित्रित किया है आपने|

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  2. बहुत ही उम्दा रचना। कई भावों को एक साथ पीरो दिया। वैसे यही तो जिदंगी की खूबसूरती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. vandana ji ,

    itni achi kavita likhi aapne .. pyar ke amulya zazbaton ko behtareen dang se darshaya hai ..

    badhai

    जवाब देंहटाएं

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