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सोमवार, 12 जनवरी 2009

मैं तुम्हारी दुनिया की
कभी थी ही नही
पता नही कैसे
हम एक दूसरे के
धरातल पर उतर आए
ज़िन्दगी के कैनवस
पर दो विपरीत
रंग उभर आए
अब कैसे यह रंग
एक हो जायें
कैसे एक नया रंग
बन जायें
हम अपने अपने
रंगों के साथ भी तो
जी नही सकते
और अब ज़िन्दगी के
कैनवस से इन रंगों को
बदल भी नही सकते
फिर कैसे इन रंगों से
इक नया रंग बनाएं
जिससे या तो तुम बदल जाओ
या मैं बदल जाऊँ
क्यूंकि
मैं तो कभी तुम्हारी
दुनिया की थी ही नही

6 टिप्‍पणियां:

  1. आप हर रचना में गहरी बात कह जाती हैं। और इसमें में भी बहुत गहरी बात कह दी। पर मुझे तो लगता है कि बदलना तो दोनो को ही पड़ता हैं। दोनो एक दूसरे की खुशियों बदल जाए। और एक नया रंग बनाए। वैसे हर बार की तरह उम्दा लिखा है आपने।

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  2. "अब कैसे यह रंग
    एक हो जायें
    कैसे एक नया रंग
    बन जायें"

    बहुत अच्‍छे। शायद एक होने की ख्वाहि्श सारा जीवन साथ चलता है।

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  3. व्यथित हृदय से क्या निकलेगा
    लावा बरसों से उबल रहा हो जहाँ
    कभी तो फूटेगा , कभी तो बहेगा
    इस आग के दरिया में
    बर्बादी के सिवा क्या मिलेगा

    bahut khub likha hai....

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  4. कमाल का लिखा है...........
    एक क बाद एक पोस्ट वाह.....
    मन बहुत ही अच्छा लगता है आपको पड़ना ...
    आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं.....
    मैं तो कभी तुम्हारी
    दुनिया की थी ही नही
    गजब का लिखा है.........


    अक्षय-मन

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  5. सुन्दर अभिव्यक्ति. धन्यवाद.

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