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बुधवार, 25 मार्च 2009

मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही

मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही
क्यूँ मुझे कमतर समझा जाता है
क्या मुझमें वो जज़्बात नही
क्या मुझमें वो दर्द नही
जो बच्चे के कांटा चुभने पर
किसी माँ को होता है
क्या मेरा वो अंश नही
जिसके लिए मैं जीता हूँ
मुझे भी दर्द होता है
जब मेरा बच्चा रोता है
उसकी हर आह पर
मेरा भी सीना चाक होता है
मगर मैं दर्शाता नही
तो क्या मुझमें दिल नही
कोई तो पूछो मेरा दर्द
जब बेटी को विदा करता हूँ
जिसकी हर खुशी के लिए
पल पल जीता और मरता हूँ
उसकी विदाई पर
आंसुओं को आंखों में ही
जज्ब करता हूँ
माँ तो रोकर हल्का हो जाती है
मगर मेरे दर्द से बेखबर दुनिया
मुझको न जान पाती है
कितना अकेला होता हूँ तब
जब बिटिया की याद आती है
मेरा निस्वार्थ प्रेम
क्यूँ दुनिया समझ न पाती है
मेरे जज़्बात तो वो ही हैं
जो माँ के होते हैं
बेटा हो या बेटी
हैं तो मेरे ही जिगर के टुकड़े वो
फिर क्यूँ मेरे दिल के टुकडों को
ये बात समझ न आती है
मैं ज़िन्दगी भर
जिनके होठों की हँसी के लिए
अपनी हँसी को दफनाता हूँ
फिर क्यूँ उन्हें मैं
माँ सा नज़र ना आता हूँ




10 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहूँ......प्रशंशा को शब्दहीन हूँ...

    कितनी गहरी पर एकदम सच्ची बात कही आपने.....
    ममत्व से माँ को तो जोड़ा जाता है पर पिता की ममता को नजरअंदाज कर दिया जाता है.....

    बहुत ही सार्थक और सुन्दर इस रचना के लिए बहुत बहुत आभार आपका.

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. बेटा हो या बेटी
    हैं तो मेरे ही जिगर के टुकड़े वो
    फिर क्यूँ मेरे दिल के टुकडों को
    ये बात समझ न आती है
    मैं ज़िन्दगी भर
    जिनके होठों की हँसी के लिए
    अपनी हँसी को दफनाता हूँ
    फिर क्यूँ उन्हें मैं
    माँ सा नज़र नाबहुत दिल से लिखी रचना। बधाई। आता हूँ

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  4. पिता का प्यार किसी भी तरह से कम नहीं होता है ..बस वह माँ के दिल की तरह जाहिर नहीं कर पाते हैं बहुत ही अच्छा लिखा है आपने इस भावना को ...सुन्दर कविता

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  5. वन्दना जी,

    एक पिता की पीड़ा को बहुत ही अच्छे तरीके से उभारा है. एक अच्छी कविता के लिये बधाईयाँ.

    मुकेश कुमार तिवारी

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  6. क्या वो मेरा अंश नहीं
    जिसके लिए में जीता हूँ

    एक पिता के दिल की दास्तान बयां कर दी आपने

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  7. आपने बहुत सुन्दरता से मन की बात प्रकट की है।

    ---
    चाँद, बादल और शाम
    गुलाबी कोंपलें

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  8. वन्दना जी।
    आपकी रचना सुन्दर है। इसमे पिता के मनोभावांे का अच्छा चित्रण है। लेकिन माता का स्थान पिता कभी नही ले सकता है। परिवार में दोनों की भूमिका अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण है। आप विचार करेंगी तो पायेंगी कि इस युग में भी माता की ही
    अधिक जय-जय कार होती है। अपनी भाषा को भी मातृ-भाषा का दर्जा दिया जाता है। न कि पितृ-भाषा का। पिता तो भोले भण्डारी हैं। उनका कार्य व्यवस्था का है। क्रियान्वयन तो माता ही करती है। विवेचना-पूर्ण रचना के लिए, शुभकामनाओं सहित-

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  9. बहुत ही बखूबी रुप से आपने पिता के दर्द को बयान किया हैं। कई लाईनें तो बहुत ही जबरद्स्त बन पडी है। कभी कभी सोचता हूँ कि आप कैसे चुटकी बजा के लिख लेती है। यहाँ तो बस सोचते ही रह जाते हैं। खैर आप ऐसे ही बेहतरीन लिखती रहिए।

    मैं जिदंगी भर
    जिनके होठों की हँसी के लिए
    अपनी हँसी को दफनाता हूँ
    फिर क्यूँ उन्हें मैं
    माँ सा नजर ना आता हूँ ।

    सच में बहुत ही उम्दा।

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  10. achha likhti hai aap..sukun milta hoga likh ker.jindgi ki dhoop me yhi to kuch suku k saye hai.

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