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गुरुवार, 28 मई 2009

अंतर्द्वन्द

उदासियों ने आकर घेरा है
शायद किसी द्वंद का फेरा है
अंतर्द्वन्द से जूझ रही हूँ
आत्मा से ये पूछ रही हूँ
ये किन गलियों का फेरा है
ये किसके घर का डेरा है
कौन है जो नज़रों में समाया रहता है
और मिलकर भी नही मिलता है
ये किसकी तड़प तडपाती है
हर पल किसकी याद दिलाती है
ये किसकी छवि दिखाती है
और फिर मटमैली हो जाती है
न जाने किस भ्रमजाल में उलझ रही हूँ
किसका पता मैं पूछ रही हूँ
यही नही समझ पाती हूँ
रो-रो आंसू बहाती हूँ
किसकी गलियों में घूम रही हूँ
दर-दर माथा टेक रही हूँ
कोई भी ना समझ पाता है
किसका ठिकाना ढूंढ रही हूँ
ये किस द्वंद में फंस गई हूँ
ये किस द्वंद में डूब गई हूँ
किसकी राह मैं देख रही हूँ
किसकी चाह में उलझ रही हूँ
कुछ भी समझ न आता है
ये किन गलियों का फेरा है

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लगा ....नज्म भी कमाल है ..भाव भी सुंदर हैं

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  2. bahut sundar kavita , vandana.

    man ki uljhan ko aapne acche shabd diye hai .. seedhi aur sahaj bhaasha ....

    meri dil se badhai sweekar kariyenga


    vijay

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  3. वदंना जी आपकी कलम दिनो दिन निखरती जा रही है। रचनाओं में एक नई चमक आने लगी है। वैसे ये गलियों का फेरा क्यों बना रहता है? पसंद आई ये रचना भी।

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  4. vandana ji, aapki rachna men tadap jaise koi jwalamukhi phatne ko taiyyar hai, lekin kuchh riwazon roopi zamini parton ne roka hua hai.jaise prem apni bulandiyon ko chhoo raha hai. behad sunder bhav hriday ki gahrai se nikalte hue.

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  5. वन्दना जी।
    शब्दों में निखार है।
    बहार ही बहार है।
    उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई।

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  6. वंदना जी आपकी हर कविता दिल में एक टीस सी जगाती है..मुझे आपका ये ब्लॉग भी अच्छा लगा..

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