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मंगलवार, 18 अगस्त 2009

भावसागर

मैं तो इक तन हूँ
बस मन ही बुला रहा है
भावों में बसे हो तुम
बस दिल ही लुभा रहा है
मैं तो सिर्फ़ चंदा हूँ
बस चकोर ही बुला रहा है
शमा के हुस्न में जलने को
परवाना ही चला आ रहा है
मैं तो इक मूरत हूँ
तुम्हें ही खुदा नज़र आ रहा है
पत्थरों में दीदार करने को
बस ख्याल ही बुला रहा है
मैं तो सिर्फ़ पुष्प हूँ
बस भ्रमर ही ललचा रहा है
कलियों के सौंदर्य में डूबने को
खिंचा चला आ रहा है
मैं तो इक नदिया हूँ
बस सागर ही बुला रहा है
भावों के गहन सैलाब में
बस ह्रदय ही गोते खा रहा है
मैं तो इक तन हूँ
बस मन ही बुला रहा है

13 टिप्‍पणियां:

  1. भावों के गहन सैलाब में
    बस ह्रदय ही गोते खा रहा है
    मैं तो इक तन हूँ
    बस मन ही बुला रहा है
    अनुभूतियाँ अत्यंत सघन है. भावो की सुन्दर अभिव्यक्ति
    वाह

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  2. बहुत भावपूर्ण रचना...बधाई..आपको
    नीरज

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  3. प्रेम के सही रूप का चित्रण करने की कोशिश अच्छी लगी वन्दना जी। सुन्दर भाव। इसी जमीन पर कभी मैंने भी एक गीत लिखा था। देखे कुछ पंक्तियाँ-

    मिलन में नैन सजल होते हैं, विरह में जलती आग।
    प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

    आए पतंगा बिना बुलाए कैसे दीप के पास।
    चिंता क्या परिणाम की उसको पिया मिलन की आस।
    जिद है मिलकर मिट जाने की यह कैसा अनुराग।
    प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  4. "मैं तो इक तन हूँ
    बस मन ही बुला रहा है"

    सुन्दर भाव, बढ़िया शब्द चयन।
    वन्दना जी!
    इस रचना के लिए मेरे पास
    एक ही शब्द है-
    बेहतरीन।

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  5. सुन्दर भाव ली हुई रचना वन्दना जी,

    शमा के हुस्न में जलने को
    परवाना ही चला आ रहा है
    मैं तो इक मूरत हूँ
    तुम्हें ही खुदा नज़र आ रहा है

    बहुत सुन्दर भाव, सुन्दर रचना, बस लिखते रहिये.
    मेरी शुभकामनाये.

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