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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

मन का पंछी

ना जाने 
वो कौन सी 
बंदिश है
जिसे तोड़ 
नहीं पाता
ये मन 
पंछी- सा
क़ैद में 
फ़डफ़डाता
उड़ना चाहकर 
भी उड़ नहीं पाता
सिसकता 
तड़पता 
मचलता
पल- पल
मगर फिर भी
उड़ने की चाहत
ना जाने 
कौन से गर्त
में दब गयी
किस खोह में
छुप गयी
और अपने 
पिंजरे के 
मोह में 
क़ैद पंछी 
मोह की बंदिशें
ना तोड़ पाता है
और यूँ ही
सिसक- सिसक कर
दम तोड़ जाता है

14 टिप्‍पणियां:

  1. ab aazad kiya jaye is panchhi ko

    bahut sundar

    wow !!!!!!!!!!


    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  2. अरे वाह वन्‍दना जी आपने तो मन को बहुत ही करीने से चित्रित कर दिया है बहुत अच्‍छी कविता बहुत बहुत आभार इस तरह की कविता के लिए

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  3. मोह की बंदिशें ...
    सच है मोह दिन ब दिन बढ़ता जाता है ... कृष्ण ने कहा है प्रेम करो ... मोह मत करो .. पर संभव कहाँ ....

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  4. अंतिम कुछ पंक्तियाँ बहुत सुन्दर है !

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  5. सुन्दर भावनात्मक कविता है ! अपनी कविताओं के ज़रिये मन को खुला उड़ने दीजिये इसे ज़रूर एक विशाल आकाश मिलेगा !

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  6. मन के पंछी की क़ैद को या उसकी बंदिशों को बखूबी बयान किया है...खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  7. "ना जाने
    वो कौन सी
    बंदिश है"

    wah!
    bahut badhiya shabd-chitran

    kunwar ji,

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  8. waah vandna ji hamare khud ke banaye gaye daayro me hi hame kaid ka nubhav hone lagta hai antartm ki chhtpataht ko bakhubi vyakt karti adbhud kavita
    saadar
    praveen pathik
    9971969084

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  9. पढकर ऐसा लगा जैसे हमारी ही पीडा कह दी हो। बहुत खूब। नैना नाराज है।

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  10. बहुत भावपूर्ण और गहरी रचना!

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  11. बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ ..... बहुत सुंदर रचना....

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  12. कौन सी बंदिशें ......???

    वंदना जी ....

    इन बंदिशों की बात अब न कर
    इक अरसे बाद तो पंछी भी
    उड़ना भूल जाता है .....

    जवाब देंहटाएं

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