पेज

शुक्रवार, 11 जून 2010

राष्ट्रमंडल खेलों का असर ?

राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन पहली बार वर्ष 1930 में हेमिल्‍टन शहर,  ओंटेरियो( कनाडा) में आयोजित किया गया था. तब इस खेल आयोजन का नाम ब्रिटिश एम्पायर गेम्स था. इसके खेल आयोजन का मूल विचार एक भारतीय का था जिनका नाम एशली कूपर था. उन्होंने इस खेल आयोजन को आपसी शांति और सौहार्द्र के लिए सही मानते हुए इसका प्रस्ताव तात्कालिक राजनेताओं को दिया था. 1930 में पहली बार  इस खेल आयोजन का शुभारंभ हुआ जिसमें मात्र 11 देशों के 400 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया था. वर्ष 1978 में इसे सर्वसम्मति से कॉमनवेल्थ गेम्स नाम दिया गया.

खेल का उद्देश्य नेक था जिस कारण इसकी प्रसिद्धि  बढती गयी मगर हर देश के लिए तो ये सही नहीं है कम से कम उन देशों के लिए तो नहीं जो अभी विकास की ओर अग्रसर हैं , ऐसे देशों के लिए इन खेलों का आयोजन करना इतना आसान काम नहीं है .यही हाल हमारे देश का भी हो रहा है . 


राष्ट्रमंडल  खेल -----------जब से ये नाम हमारे देश में आया है यूँ लगता है जैसे कोई अजूबा आ गया हो जिसके आने से देश की क्या हर इंसान की किस्मत बदल  जाएगी ............जैसे कोई जादू की छड़ी हो जो घुमाई और बस फिर सब हाजिर हो जायेगा............देश से गरीबी मिट जाएगी ,इंसान बदल जायेगे ,सब खुशहाल हो जायेगे ..........................क्या ऐसा होगा?ये सोच कितनी कुंठाग्रस्त है . जबकि ऐसा कुछ नहीं होने वाला . जब से राष्ट्रमंडल खेलों का नाम आया है देश के हालत बद  से बदतर होते जा रहे हैं .........गरीब और गरीब होता जा रहा है और बेचारे अमीर पर भी इसकी तपिश पहुँचने लगी है और मध्यवर्गीय इंसान कैसे जी रहा है ये सिर्फ वो ही जानता है ...............सरकार सिर्फ अपनी सोच रही है कि एक बार ये खेल कराने  से सारी दुनिया में भारत का नाम रोशन हो जायेगा और इससे काफी पैसा देश में बरसेगा मगर ऐसा कुछ नहीं होगा सब जानते हैं भारत को और उसकी गरीबी को ...........हाँ ,शायद हो जाये तब जबकि गरीब रहे ही ना और ऐसा ही तो होना है तभी तो सारी शक्ति सरकार ने इन खेलों के प्रति लगा दी है फिर चाहे गरीब  जिए या मरे तभी तो देश में महंगाई  सुरसा के मुख की तरह बढती जा रही है और सरकार का इस तरफ ध्यान ही नहीं है और हो भी क्यूँ ? जो सरकार चाहती है वो हो रहा है तो उसके बाद देश का या उसकी जनता का जो चाहे सो हो जाये क्या फर्क पड़ता है .

महंगाई  बढ़ने के कारण किसी के घर में दो वक्त का चूल्हा जले या नहीं मगर खेलों का काम नहीं रुकना चाहिए ,कोई बच्चा स्कूल जा पाए या नहीं मगर खेल समय पर होने चाहिए . जब देश के करतार ही ऐसे होंगे तो फिर उसके बाशिंदों का तो अल्लाह ही मालिक है . क्या ये खेल इतने जरूरी थे इस वक़्त जब देश पहले ही आर्थिक रूप से इतना उन्नत नहीं था? दूसरी और सबसे जरूरी बात  क्या इतना पैसा जो खेलों में लगाया गया है यदि वो ही पैसा देश की उन्नति के लिए प्रयोग किया जाता तो क्या तब देश खुशहाल नहीं होता या जनता सुखी नहीं होती ..............बेरोजगारों को रोजगार दिया होता तो अपने आप देश तरक्की की सीढियां चढ़ता चला जाता और कहीं भी ये साबित करने की जरूरत नहीं होती अपने आप साबित हो जाता ............हीरा अपनी चमक अपने आप बिखेरता है उसे अपने को साबित नहीं करना पड़ता .अरबों रूपया लगाया जा रहा है क्या यही पैसा अगर अपने देश के गरीब और बेरोजगारों के लिए प्रयोग किया जाता तो क्या  तब देश खुशहाल नहीं  होता?विदेशियों की आवभगत में करोड़ों रुपया बर्बाद होगा मगर क्या फर्क पड़ता है ,इससे नाम तो होगा ना .बस इतना ही काफी है बाकी जनता का जो चाहे हो .  ये देश के कर्णधार देश को ना जाने किस दिशा में ले जा रहे हैं शायद सिर्फ अपना ही नाम रोशन करना चाहते हैं इसलिए हर हालत में खेल करवाने हैं ताकि आने वाली पीढियां उनका गुणगान कर सकें मगर इन खेलों की नींव में ना जानेकितने  लोगों के अरमानों की लाशें  दबी हैं ये कोई ना जान पायेगा .............किसान आत्महत्या कर रहा है तो करे मगर खेल होने जरूरी हैं क्यूंकि इनके कराये बिना ये सेहरा इनके सिर नहीं बंध सकेगा फिर चाहे उसमें गरीब और निरीह जनता का खून ही क्यूँ ना लिपटा हो.
करोड़ों रुपया बड़े -बड़े अभिनेताओं को आमंत्रित करने के लिए दिया जायेगा और विज्ञापनों पर खर्च  किया जाएगा  और फिर जब ये खेल हो जायेंगे तब एक गंदगी का ढेर मिलेगा उसकी साफ़ सफाई पर फिर रुपया बहाया जायेगा ..............क्या ये पैसा जनता का नहीं  है जिसे इस तरह बर्बाद किया जाएगा ?जनता का पैसा जनता से ही लूट कर अपनी वाहवाही कराने  का इससे अच्छा और क्या उपाय हो सकता है.
 इन खेलों के विद्रोह में कोई भी नेता या कोई भी पार्टी आगे नहीं आई क्यूंकि कोई भी अपने सिर नाकामी का सेहरा नहीं बांधना चाहता . सब बड़े हमदर्द बनते हैं जनता के मगर सभी एक ही थाली के बैगन हैं .यदि इसके अलावा और कोई बात होती चाहे कितनी ही छोटी होती उसे बड़ा मुद्दा बना दिया जाता जैसे एक मूवी को बड़ा बना दिया जाता है और उसे प्रदर्शित होने से रोक दिया जाता है मगर अब कोई नहीं बोलेगा .............टैक्स के बोझ से आम इन्सान मरता  जा रहा है मगर किसी भी दल  के कान पर जून तक नहीं रेंगी ........कौन ओखली में सिर दे ? आज एक मजदूर जिसके घर में  एक वक़्त का चूल्हा नहीं जल पाता कहाँ से रोटी का जुगाड़ करे और कैसे ? इसकी किसी को फिक्र नहीं है सबको अपनी ही पड़ी है ............ऐसे में खेल कितने जरूरी हैं  इस ओर किसी का ध्यान क्यूँ जायेगा .
अब तो ये खेल जनता के गले की फांस बन  ही चुके हैं और अब  इन्हें झेलना ही होगा जनता को और कामयाबी का सेहरा सरकार अपने माथे पर लगा ही लेगी फिर उसके बाद जनता का जो चाहे हो ..................मगर प्रश्न फिर भी अपनी जगह कायम रहेगा कि जब एक देश खेल कराने में सक्षम ना हो तो क्या ऐसे माहोल में खेल कराने जरूरी हैं? क्या निरीह , असहाय जनता के खून का पाप अपने सर लेना जरूरी है? कब यहाँ के कर्णधार देश और उसकी जनता के विषय में सोचेंगे ?ये कुछ अनुत्तरित प्रश्न हर युग में कायम रहेगे और आने वाली पीढ़ी इनके जवाब मांगेगी .

12 टिप्‍पणियां:

  1. काफी हद तक आपके विचारों से सहमत हूँ ..... ...

    जवाब देंहटाएं
  2. सार्थक लेख ..हर चीज़ के दो पहलू होते हैं देखा जाये तो ये भी विकास का एक चरण है ..और जो आपने कहा वो भी कटु सत्य है .

    जवाब देंहटाएं
  3. सार्थक लेख....पर इन खेलों की वजह से बहुतों को रोज़गार भी मिला होगा....हाँ यह ज़रूरी है कि इनकी वजह से जो जनता से वसूला जा रहा है और बाद में ना जाने कब तक वसूला जायेगा..उसका हिसाब कौन रखेगा ...

    जवाब देंहटाएं
  4. असल मे नेता अपनी नाक ऊँची करने के लिए ऐसे फैसले ले लेते है ...उन्हे जनता की परवाह नही है..देश का पैसा कहाँ खर्च करना चाहिए कहाँ नही इस का फैसला ये ही लोग करते हैं ऐसे मे जनता लाचार नजर आती है.....आप ने सार्थक लेख लिखा है बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. वर्तमान के हालात को मद्देनजर रखते हुए आपने बहुत ही उपयोगी पोस्ट लगाई है!

    जवाब देंहटाएं
  6. अधिकाँश भारतीय आजीविका कि सामान्य व्यवस्था होने पर संतुष्ट हो जाता है ! वे सरल एवं कष्ट सहिष्णु होते है. ओर आधा पेट भोजन खाकर अपना निम्न स्तर का जीवन जीते है ! इसका कारण वर्तमान में जनसख्या क़ी तीव्र वर्द्धी के साथ खाघ वस्तुओ क़ी वर्द्धि नही हुई ! साथ ही साथ आपने जो बाते रखी वो अधिक मात्रा में दिख रही है वजह मुख्य यही है !

    आपका समायिकी लेख चिंता को बढाती है ! व्यक्ति को निद्रा से जगाने का यह भी उत्तम सस्त्र है ! अपेक्षा मात्र इतनी है सरकारों के साथ जन भी दायित्वों को समझे ! उत्तम विचारों के लिए बधाई वंदनाजी! एक कवियत्री का यह रूप भी दिल को भाया !

    जवाब देंहटाएं
  7. सही लिखा है आपने, ये खेल आमजन की जिंदगी के साथ खेल रहे हैं

    जवाब देंहटाएं

अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया