कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा -थोडा
मरता है आदमी
एक बार तब मरता है
जब अपनों के दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान के
कभी धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी
कैसे कहते हो
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता है
जो इक -इक पल में
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?
जिनके लिए जीता था
उन्ही के गले की फँस हो जाये
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी
फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़
थोडा- थोडा
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............
सच आज ज़िंदगी कि आपाधापी में जिंदा होने का एहसास ही नहीं रहा ....सटीक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंमेरे भी दो शेर देखिएृ-
आदमी की भीड़ में, खोया हुआ है आदमी।
आदमी की नीड़ में, सोया हुआ है आदमी।।
आदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से।
आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।।
'mar-mar kar jeene aur ji-ji kar marne ka hi naam to jindgi hai.
जवाब देंहटाएंachchhi post.
बेहतरीन अभिव्यक्ति, हर पल जीता, मरता आदमी। बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंवाह वंदना जी......कमाल कर दिया आज तो आपने......कितनी गहरी और सच्ची बात कह दी है .....सत्य है मौत कोई एक बार में थोड़े ही आती है .....वो तो रोज़ हमें मारती है.....इस पोस्ट के लिए आपको ढेरों शुभकामनाये|
जवाब देंहटाएंmar mar ke jee raha hai aadmi:)
जवाब देंहटाएंisliye jinda hai aadmi!!!
achchhi rachna!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है...
जवाब देंहटाएंसच में रोज़ ही तो मर रहा है आदमी...
मर मर के जीता आदमी...सच्चाई को पर्त दर पर्त उधेड़ती अद्भुत रचना...बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ! मानव जीवन के बारे में सच बयानी ...
जवाब देंहटाएंबिलकुल सधे अंदाज़ में आपने आदमी की मनोदशा को उभारा है.
जवाब देंहटाएंसादर
अरे आपने तो बहुत ही ख़ूबसूरत फोटो लगायी है ... यह कविता भी आपकी फोटो की तरह ही ख़ूबसूरत ...
जवाब देंहटाएंसटीक और बेहतरीन अभिव्यक्ति...
sundar rachna!!!
जवाब देंहटाएंअति सुंदर शव्दो से सजी आप की सुंदर रचना, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंविचार-मानवाधिकार, मस्तिष्क और शांति पुरस्कार
सटीक अभिव्यक्ति.....
जवाब देंहटाएंआपका नया लुक पसंद आया :)
वो तो रोज़
जवाब देंहटाएंथोडा- थोडा
मरता है आदमी
और फिर जीने का भान करता है आदमी
सुन्दर रचना .. बहुत सुन्दर
जिंदा है पर डरा हुआ है.
जवाब देंहटाएंयूं कह दो कि मारा हुआ है.
आम जीवन को कितने करीब से देखने की कोशिश की आपने इस कविता में.. मुझे तो अपनी कविता सी लग रही है.. सच के करीब...
जवाब देंहटाएंसच है रोज़ मरता है हैरानी है फिर भी जिन्दा है। अच्छी रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंकैसे कहते हो ज़िंदा है आदमी ,
जवाब देंहटाएंवो तो रोज़ रोज़ मरता है आदमी।
सुन्दर अभिव्यक्ति , बधाई।
....और एक दिन फिर मर ही जाता है।
जवाब देंहटाएंवंदना,
जवाब देंहटाएंसच कह रहा हूँ , बहुत दिनों के बाद ऐसी कविता पढ़ने को मिली .. मैंने तो पढते पढते खो गया था ,. मुझे लग रहा था कि मेरी अपनी ही कविता है .. और सच कहूँ हर इंसान biologically तो थोडा थोडा ही मरता है , बाकी दूसरे कारणों से ज्यादा ज्यादा मरता है ..
तुम्हे दिल से बधाई इस कविता के लिये
विजय
बहुत ही अच्छा.....मेरा ब्लागः-"काव्य-कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ ....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआज तो रचना के साथ साथ तस्वीर भी बदली बदली नज़र आ रही है .....
जवाब देंहटाएंबधाई दोनों के लिए .....!!
वाह! क्या बात है, बहुत सुन्दर! बेहतरीन ! संवेदनशील, बहुत दिन बाद कोई अच्छी रचना पढने को मिली है!
जवाब देंहटाएंकईबार तो लगता है आदमी जिंदा चलती फिरती लाश है .बाकी जिंदिगी सचमुच टुकडों में मरने के अह्सास के सिवा कुछ नहीं ,फानी साब का शेर है -हर नफ्स उम्र ऐ गुजसिस्ता की मय्यत है फानी /जिंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का.
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