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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

हाँ ..........बचपन याद आ गया

एक बेफ़िक्री का आलम होता था
वो छत पर सोना तारों को निहारते हुये……
वो बारिश मे भीगना सखियों संग
वो नीले आकाश मे
पंछियों को उडते चहचहाते देखना
रात को हवा ना चलने पर
 पुरो के नाम लेना
वो सावन मे झूलों पर झूलना
कभी धूप मे खेलना
तो कभी शाम होते ही
छत पर धमाचौकडी मचाना 
कभी पतंगो को उडते देखना
तो कभी उसमे शामिल होना ,
कभी डूबते सूरज के संग
उसके रंगो की आभा मे खो जाना ,
कभी गोल गोल छत पर घूमना
और अपने साथ - साथ
पृथ्वी को घूमते देखना और खुश होना
आह! बचपन तेरे रंग निराले
सुन्दर सुन्दर प्यारे प्यारे
मगर अब ना दिखते ये नज़ारे
मेरे बच्चे ना जान पायेंगे
ये मासूम लम्हे ना जी पायेंगे
यादो मे ना संजो पायेंगे
आज न वो खेल रहे
न वो वक्त रहा   
पढाई  के बोझ तले
बचपन इनका दब गया  
उम्र का एक हिस्सा 
जो मैंने जी लिया
कैसे बच्चे जान पाएंगे  
सिर्फ यादों में बसर रह पाएंगे
एक सुखद अहसास का दामन
जिनका यादो मे बसेरा है
आज एक बार फिर
मुझे मुझसे मिला गया
मुझे भी बचपन याद आ गया
हाँ ..........बचपन याद आ गया 


39 टिप्‍पणियां:

  1. आज के बच्चों को वैसा बचपन कहाँ नसीब हो पाता है.अगर अपने बचपन की बातें सुनाई जाएँ तो इन्हें लगता है जैसे कहानी सुन रहे हों.
    आपकी यह कविता बचपन की यादों को ताज़ा कर रही है.

    सादर

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  2. बचपन की मोहब्बत को तुम यूँ न भुला देना
    जब याद मेरी आये तब दिल से दुआ करना

    वंदनाजी ब्लॉग जगत में अभी मेरा बचपन ही है.आप यूँ भुला कर बैठ जाएँगी तो कैसे काम चलेगा ?
    राम-जन्म का बुलावा है मेरे ब्लॉग पर,
    आकर सुन्दर सुन्दर सी बधाई गा दीजियेगा.

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  3. बचपन कब लौट के आता है,
    मुए समय के साथ
    ये भी जल्द बीत जाता है.
    बस रह जाती हैं कुछ यादें
    फिर जीवन यूं ही गुजर जाता है.

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  4. सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति ...

    यादों में बचपन की हलचल हमेश रहती है | स्थिर मन होकर कुछ समय बचपन जी लेना बहुत ही सुखद होता है और जीवन में एक नयी उर्जा का संचार सा हो जाता है |

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  5. कविता बचपन की यादों को ताज़ा कर रही है

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  6. बिल्‍कुल सच कहा है आपने ...बचपन की यादो को ताजा करती हर पंक्ति .. ।

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  7. लेकिन यह भी तो सच है कि वर्तमान में बच्‍चे जैसा जीवन जी रहे हैं वैसा हमारे पास कुछ नहीं था। हमारे खिलौने चाँद-तारे थे और उनके पास आज ढेर सारे खिलौने हैं। हम दो जोडी कपड़ों में थे और वे ढेर सारे कपड़ो। में उनकी हर जिद आवश्‍यकता है और हमें जिद करने की पाबंद किया जाता था। बस हमें अपना अच्‍छा कहने में सुख अनुभव होता है लेकिन आज जो है वो हमारे पास कुछ भी नहीं था।

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  8. @ ajit gupta
    आपका कहना भी काफ़ी हद तक सही है मगर सहूलियतें ही सब कुछ नही है आज देखिये बच्चे और उनका बचपन पढाई के बोझ तले दब कर रह गया है………कहाँ खुली हवा मे सांस ले पाते हैं? कंक्रीट का जंगल बन गया है आज …………हमारे वक्त मे कहाँ था ऐसा हाल्…………कब पढ लिख लिये पता भी नही चलता था और ना ही इतना बोझ था आज तो बचपन से ही कम्पीटिशन बच्चों को चैन से जीने नही देता……………हम लोग अपने लिये वक्त निकाल लेते थे मगर आज बच्चे जानते भी नही ………सिर्फ़ कम्पयूटर की दुनिया ही रह गयी है उनके लिये…………बेशक सुविधायें बहुत हैं फिर भी एक फ़र्क तो है ही तब मे और अब मे……………बेफ़िक्री की ज़िन्दगी का।

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  9. कविता की अंतिम दो पंक्तियों में आपने बचपन को निखारा है उसमें बचपन की किलकारी, शरारतें, धमा-चौकड़ी सब मिल गया मुझे. कविता का अंत बेहद प्यारा है.

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  10. बचपन को फिर से जी लिया है... बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं .. एक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !

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  11. बहुत सुन्दर रचना।
    बचमपन याद तो बहुत आता है,
    मगर लौटकर कभी वापिस नहीं आता है।

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  12. बचपन और बचकानी हरकतें याद दिलाने के लिये शुक्रिया !

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  13. वंदना जी,

    बचपन के गलियारों में ले गयी ये पोस्ट ........वो ग़ज़ल गुनगुनाने का दिल हो आया ' ये दौलत भी ले लो....शानदार और आपके अजित गुप्ता जी कि टिप्पणी के जवाब से भी मैं सहमत हूँ.....आज सुविधाएँ तो बहुत हैं पर इन सब के बिच जैसे बचपन कहीं खो गया है........सलाम इस पोस्ट के लिए.....

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  14. बहुत ही सुन्दर और सत्य उजागर करती रचना
    सचमुच आज के बच्चों का बचपना छीनता जा रहा है...

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  15. बेहतरीन भाव... हमें भी बचपन याद आगया... :-)

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  16. बहुत खूबसूरत रचना ...भले ही बचपन में हमारे पास ज्यादा खिलौने नहीं थे , पर हम खुद ही निर्माण कर लिया करते थे ..जैसे दिवाली के बाद दीयों से तराजू बना कर खील बताशों को तोलना ( यह मुझे याद है बाकी याद नहीं ) हाँ एक और याद आया ..डिब्बों से टेलीफोन बना कर खेलना .खैर हमारा बचपन कम से कम पढ़ाई के बोझ से दबा हुआ नहीं था ..

    वो दिन अब कैसे लौट सकते हैं बस सोचा ही जा सकता है

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  17. इस नज़्म को पढ़कर वो जीवन शैली याद आ गयी जो अपार्टमेन्ट संस्कृति के विकसित होने के पहले हुआ करती थी. अब तो खुला आसमान और चांद तारे देखने के लिए सही साईट की तलाश करनी पड़ती है. आधुनिक जीवन शैली पर एक शेर याद आ गया--
    "सूरज को चोंच में लिए मुर्गा खड़ा रहा
    खिड़की के परदे खैंच दिए रात हो गयी."
    ....बहरहाल.....बहुत दिनों पर कोई नज़्म पढ़कर जेहनो-दिल में कुछ हलचल हुई......बहुत-बहुत बधाई
    ---देवेंद्र गौतम

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  18. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (16.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  19. पृथ्वी को घूमते देखना और खुश होना
    आह! बचपन तेरे रंग निराले
    सुन्दर सुन्दर प्यारे प्यारे
    मगर अब ना दिखते ये नज़ारे
    मेरे बच्चे ना जान पायेंगे
    ये मासूम लम्हे ना जी पायेंगे

    सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  20. Koyi laut de mere beete huye din...
    Aapne mujhe bachpan ki un yaadon ke beech jhoole jhulaye jinse sukoon milta hai...

    dhanyavaad ek bahut hi sahi aur uttam rachna ke liye.

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  21. तो कभी शाम होते ही
    छत पर धमाचौकडी मचाना
    कभी पतंगो को उडते देखना
    तो कभी उसमे शामिल होना ,
    कभी डूबते सूरज के संग
    उसके रंगो की आभा मे खो जाना
    अदभुत बिम्ब
    बधाइयां

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  22. बच्चों को मिला तो बहुत कुछ है मगर उनकी मासूमियत. बेफिक्री और बचपना खो गया है ...
    वैसा माहौल ना सही , मगर उन्हें अपना समय देकर और उन्हें अपनी यादों से मिलवा कर हम उसकी पूर्ति कर सकते हैं ...
    बचपन पर चिंतन को दर्शाती सुन्दर कविता !

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  23. आपने तो बापिस बचपन में पहुंचा दिया |
    अब बापिस आने का मन ही नहीं हो रहा है |
    अच्छी पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें
    आशा

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  24. बचपन की वीथियों में खींच कर ले गयी आपकी रचना ! अपनी मित्र मण्डली के साथ बिताये बेफिक्री और मस्ती भरे ना जाने कितने अनमोल लम्हे आँखों में कौंध गये ! यह सच है आज के बच्चों के पास बड़े होने पर शायद इतनी खूबसूरत स्मृतियाँ ना हों याद करने के लिये ! उनके आज को संवारने की जिम्मेदारी क्या हम पर ही नहीं है ? सुन्दर पोस्ट !

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  25. एकदम सच...बहुत बेहतरीन रचना...

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  26. आज न वो खेल रहे
    न वो वक्त रहा
    पढाई के बोझ तले
    बचपन इनका दब गया
    उम्र का एक हिस्सा
    जो मैंने जी लिया
    कैसे बच्चे जान पाएंगे

    बेहद सुन्दर रचना.........
    शुभकामनाओं सहित....
    बधाई.....

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  27. sahi baat hai vandna Di..

    ye daulat bhi le lo..ye shoharat bhi le lo..bhale chhen lo mujhse meri jawaani..magar mujhko lauta do..bachpan ka saawan wo kaagaz ki kashti..wo baarish ka paani !

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  28. हम भगवन का शुक्रिया अदा करते हैं की उन्होंने हमें इतने खुबसूरत एहसास दिए हैं जब चाहें तब उन यादों को महसूस कर लेते हैं कितने खुशकिस्मत हैं न हम ?
    बहुत सुन्दर एहसासों से सजी खुबसूरत रचना |

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  29. हम भगवन का शुक्रिया अदा करते हैं की उन्होंने हमें इतने खुबसूरत एहसास दिए हैं जब चाहें तब उन यादों को महसूस कर लेते हैं कितने खुशकिस्मत हैं न हम ?
    बहुत सुन्दर एहसासों से सजी खुबसूरत रचना |

    जवाब देंहटाएं
  30. aapki rachana ak jivan ka dastavej sa laga . bas fark hai ye anlikhe hote hain . likhe hote hai smriti patal par
    jisko bakhubi aapne ukera hai shilp men . aabhar/

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  31. दुःख की बात कि आज का बच्चा अपना बचपन टी.वी. और कम्पुटर में निकाल रहा है.. माँ-बाप जिम्मेवार हैं इसके लिए..
    बचपन से सुन्दर और बेहतरीन समय किसी भी इंसान की ज़िन्दगी में नहीं आता है.. काश ऐसा लोग समझ पाएं..
    ऐसी ही एक कविता मैंने लिखी थी काफी पहले.. पढ़िएगा.... नीचे दिए गए लिंक में उस कविता का लिंक है...

    तीन साल ब्लॉगिंग के पर आपके विचार का इंतज़ार है..
    आभार

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  32. आप ने तो बचपन याद दिला दिया... पता नही आज भी लोग छतो पर सोते हे या नही...
    धन्यवाद इस सुंदर रचना के लिये

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  33. बचपन के दिन भुला न देना.. दरअसल वो दिन भूल ही नहीं सकते । आज की तुलना में अपना बचपन मुझे भी जमीन और प्रकृति के काफी करीब लगता है । आज तो बचपन इतना 'ओवर इन्फॉर्म्ड'और 'डेव्लप्ड'टाइप का है कि बहुत जल्दी खत्म हो जाता है । आपने बचपन के सुहाने दिनों को याद करा दिया इस सुंदर रचना के माध्यम से । धन्यवाद ।

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  34. बहुत सुंदर है बचपन की कविता...

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  35. एक सुखद अहसास का दामन
    जिसका यादों में बसेरा है...
    आज एक बार फिर मुझे मुझसे मिला गया ....
    ....
    ..
    और आपके साथ-साथ हमने भी लगा लिए छत पर गोल-गोल कई चक्कर वंदना जी ...मेरा बचपन गाँव में बीता है वंदना जी ...और गर्मियों में गाँव का जीवन अपने एक अलग ही रंग में होता है....खैर ...स्म्रतियों से निकलता हूँ ....यहाँ इतना लिखना संभव नही होगा ....
    वंदना जी आपके अथाह स्नेह और आशीर्वाद से मुझे भी कुछ लोग जानने लगे हैं आपको थैंक्स कह कर खुद की नजरों में छोटा नही होना चाहता ....

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  36. वंदना जी आपका एक पाठक होने के नाते मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि आपकी हर कविता में अब अद्भुत सौंदर्य और अरूणिम निखार प्रतीत देता है। शब्दों में योजनाबद्ध अलंकार निवेष का उपक्रम ना होने के बावजूद पंक्तियां रसों से अलंकृत हें, अलंकार पंक्तियों के साथ जैसे स्वयमेव आयातित हैं । अर्थों में गूढ़ता है, भावों में सौंदर्य है।

    वैसे तो मैं आपकी हर कविता को पढ़ा, पर जैसे इस कविता पर ना जाने क्यूं मेंरी निगाहें रूक गयीं। शायद इंसान को अपनी उम्र का अहसास नहीं होता, बपचन के प्रति इंसान का मोह कदाचित् अथाह होता है। आपकी कविता पढ़ते हुये एक गजल की कुछ पंक्तियां अधर अनायास गुनगुनाने लगी- वो कागज की कष्ती, वो बारिष का पानी... । काष फिर से वो बचपन लौट आता, ना लिंगों का भेद होता, ना जाति और धर्मों की कसक होती,, झगड़ते और फिर सुलह करते। दांतो को नाखून से चबाकर कहते, कट्टी, कट्टी और रोते हुये मां की आंचल में छिप जाते किसी सुरक्षा की तलाष में।

    ज्यादा कहना सूरज को दिये दिखाने की तरह होगा, कवितायें सचमुच बहुत सुन्दर हैं।

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अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया