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शनिवार, 13 अगस्त 2011

सुना है आज रक्षाबंधन है

सुना है आज
रक्षाबंधन है
एक धागे में सिमटा
भाई बहन के प्यार का बँधन
जो धागे का मोहताज नहीं होता
सिर्फ स्नेह की तार में लिपटा
एक अनोखा बँधन
मगर पता नहीं
यहाँ तो कोई ख्याल उपजता ही नहीं
कभी किसी ने मरुभूमि को सींचा ही नहीं
जाना ही नहीं बदलियाँ कैसे बरसती हैं
मेह में मरुभूमि कैसे भीगती है
कभी कोई बदली छाई ही नहीं
कभी सावन की रुत यहाँ आई ही नहीं
नहीं जाना कभी कैसे मन पंछी
दिनों पहले उड़ने लगता है
नहीं जाना कैसे द्रौपदी के चीर का ऋण
कृष्ण उतारा करते हैं
 शायद कुछ कलाईयों को
धागे नहीं मिला करते
या कुछ धागों को कलाइयाँ
कुछ अहसास हमेशा बंजर ही रहते हैं
कुछ आंगनो से बादल भी कतरा के निकल जाते है
या शायद मरुभूमि में कैक्टस ही उगा करते हैं

26 टिप्‍पणियां:

  1. वन्दना जी रक्षा बंधन के उपर आपने दिल को छु लेने वाली कविता लिखी है...
    धन्यवाद्

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  2. बहुत सच कहा है...मन को छूते गहन और मर्मस्पर्शी भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार

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  3. आज के दिन भी इतनी निराशा ?
    कलियाँ भले ही सुनी रहें पर एहसास खत्म नहीं होते

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  4. यहाँ तो कोई ख्याल उपजता ही नहीं
    कभी किसी ने मरुभूमि को सींचा ही नहीं
    जाना ही नहीं बदलियाँ कैसे बरसती हैं
    मेह में मरुभूमि कैसे भीगती है

    वंदना जी ,आपकी दिल की पीर का क्या कहें ?
    आपके दिल से ये 'मरुभूमि', 'कैक्टस' के
    अल्फाज दिल को बहुत पीड़ा पहुँचा रहें हैं.
    अब मै क्या कहुं,आप ही ज्यादा जानतीं हैं.

    रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  5. सुन्दर रचना , खूबसूरत भावाभिव्यक्ति

    रक्षाबंधन एवं स्वतन्त्रता दिवस पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएं

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  6. रक्षाबंधन पर सशक्त अभिव्यक्ति....रक्षाबंधन की शुभकामनायँ...

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  7. गंभीर कविता.. जी हाँ मरुभूमि के कैक्टस ही उगते हैं...

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  8. रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
    कविता अच्छी लगी।

    सादर

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  9. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  10. बहुत सुन्दर, शानदार और भावपूर्ण रचना! उम्दा प्रस्तुती!

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  11. Nice post .

    रक्षाबंधन के पुनीत पर्व पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं...

    देखिये
    हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा और राखी का मर्म

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  12. अर्थ समेटे हुए रचना , अच्छी लगी , बधाई

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  13. kaiktas ko
    kam mat aankiye
    kaiktas mein bhee
    phool khilaa karte hein
    nazariyaa achhaa ho to
    bahnon ko bhaai,
    bhaai ko bahanein
    mil jaatee
    soonee kalaaiyon mein bhee
    raakhee bandh jaatee hai
    कैक्टस की व्यथा
    क्यों मुझ पर हँसते हो?
    मुझ से नफरत करते हो
    बिना कारण दुःख देते हो
    अपनी इच्छा से कैक्टस
    नहीं बना
    मुझे इश्वर ने ये रूप दिया
    उसकी इच्छा का
    सम्मान करो
    मुझ से भी प्यार करो
    माली की ज़रुरत नहीं
    मुझको
    स्वयं पलता हूँ
    कम पानी में जीवित
    रहकर
    पानी बचाता हूँ
    जिसके के लिए तुम
    सब को समझाते
    वो काम में खुद ही
    करता
    भयावह रेगिस्तान में
    हरयाली का अहसास कराता
    खूबसूरत
    फूल मुझ में भी खिलते
    मेरे तने से तुम भोजन पाते
    आंधी तूफानों को
    निरंतर हिम्मत से झेलता
    कभी किसी से
    शिकायत नहीं करता
    तिरस्कार सब का सहता
    विपरीत परिस्थितियों
    में जीता हूँ
    फिर भी खुश
    रहता हूँ
    25-04-2011
    763-183-04-11

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  14. रक्षा का विश्वास और एहसास हर भाई-बहन को होना चाहिए- पर्व से इतर भी।

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  15. वंदना जी,

    बेहतरीन उद्गार...

    भावनाओं की ये बातें भावनाओं वाले ही जान सकते हैं...

    जय हिंद...

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  16. रिश्ते किस्मत से ही बनते हैं !
    कविता में उन धागों और सूनी कलाईयों के दर्द ने दिल को छूआ !

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  17. इस रचना के बाद सिर्फ़ एक ही बात हो सकती है आंखें बंद करके चुप होकर बैठने की , वैसा सा ही लगा । बहुत गहरे उतार ले गईं आप

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  18. बहुत ही भावुक रचना.....

    रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  19. मन को छूते गहन और मर्मस्पर्शी भाव सुन्दर अभिव्यक्ति

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  20. भावुक सी करती, निकट सपन्दित होती सी रचना....
    सादर...

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  21. सारगर्भित लेखन ,सुन्दर है .....आभार /

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