पेज

रविवार, 29 जनवरी 2012

परिपाटियों को बदलने के लिए छलनी का होना भी जरूरी होता है ना ............


आखिर कब तक सब पर दोषारोपण करूँ
तालाब की हर मछली तो ख़राब नहीं ना
फिर भी हर पल हर जगह 
जब भी मौका मिला
मैंने तुम्हारी पूरी जाति को 
कटघरे में खड़ा किया
जबकि जानती हूँ और मानती भी हूँ
पाँचों उँगलियाँ एक सी नहीं होतीं
मगर शायद बचपन से 
यही मेरे संस्कारों में रोपा गया
एक डर के साथ 
मेरे आत्मविश्वास को छला गया
मुझे निरीह प्राणी समझा गया
और मुझे अपने अस्तित्व की पहचान से
वंचित रखा गया
ये पीढ़ी दर पीढ़ी रोपित 
एक छलावा ही शायद 
हमेशा तुम्हारी पूरी जाति से 
नफरत करता रहा
हर तरफ सिर्फ और सिर्फ
अंधियारों में फैले स्याह साए ही 
मेरे डर को पुख्ता करते रहे
जबकि ऐसा हर जगह तो नहीं था ना
नहीं तो शायद ये संसार 
ढोर डंगर से ज्यादा कुछ ना होता
पशुओं सा जीवन जी रहे होते सभी
जिसमे कोई रिश्ता नहीं होता
कोई मर्यादा नहीं होती
मगर ऐसा भी तो नहीं है ना
आज अवलोकन करने बैठी 
तो लगा ये भी तो एक अन्याय ही है ना
क्योंकि जिसे हम हमेशा नकारते आये
जिसको हिकारत से देखते रहे
उसने ही तो पहल की ना हमारे उत्थान की
वो ही लड़ा सारे जहान से हमारे लिए
माना गिने चुने वजूदों ने ही 
धरा का दामन अपवित्र किया 
मगर उससे लड़ने का हमने भी तो 
ना दुस्साहस किया
बल्कि उसके कृत्य से डर
अपने को अपनी शिराओं में 
और समेट लिया
और शायद इसी संकुचन ने
हमें परावलम्बी बनाया 
फिर उस दोज़ख से भी तो 
तुम्ही ने बाहर निकालने की कवायद की
मेरे हौसलों को परवाज़ दी
एक नया आसमान दिखाया उड़ने के लिए
फिर कैसे सिर्फ तुम्हें ही 
दोषी मान सजा दूं
कुछ वीभत्स मानसिकता वाले वजूदों के लिए
संपूर्ण जाति तो दोषी नहीं हो सकती ना
फिर कैसे हर कुकृत्य के लिए 
सिर्फ तुम पर ही दोषारोपण करूँ ........ओ पुरुष !
कंकड़ पत्थरों को अलग करने के लिए
परिपाटियों को बदलने के लिए छलनी का होना भी जरूरी होता है ना ............

21 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा ...हर एक को एक ही लाठी से नहीं हाँका ज सकता ... सार्थक चिंतन

    जवाब देंहटाएं
  2. दहकते अंगारों पर चलकर ही परिवर्तन होता है ...

    जवाब देंहटाएं
  3. सच: कंकड़ पत्थर अलग करने के लिए ...छलनी का होना जरूरी है ...
    सार्थक सोच के लिए बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  4. ब्लॉग बुलेटिन पर की है मैंने अपनी पहली ब्लॉग चर्चा, इसमें आपकी पोस्ट भी सम्मिलित की गई है. आपसे मेरे इस पहले प्रयास की समीक्षा का अनुरोध है.

    स्वास्थ्य पर आधारित मेरा पहला ब्लॉग बुलेटिन - शाहनवाज़

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह वंदना जी ..आपकी लेखनी को सलाम ...बहुत सच लिखा हैं ...सब एक से नहीं हैं


    आज अपनी ही कविता की ४ पंक्ति याद आ रही हैं


    कुछ उगते हैं
    कुछ उगती हूँ मैं
    अपनी ही सोचों में
    दुःख की फसल बोती हूँ मैं |..अनु

    जवाब देंहटाएं
  6. सुन्दर मनोहर छलनी का प्रतीक बेहद खूबसूरत .

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत गहन रचना, सतत परिवर्तन का तथ्य स्वीकार करना ही होगा..

    जवाब देंहटाएं
  8. सही कहा ..सार्थाक चिन्तन..सुन्दर प्रस्तुति..

    जवाब देंहटाएं
  9. कुछ अनुभूतियाँ इतनी गहन होती है कि उनके लिए शब्द कम ही होते हैं !
    बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  10. कितनी सच्ची बात कही है..जर्नालाईज कुछ भी नहीं किया जा सकता.

    जवाब देंहटाएं
  11. इस कविता को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।

    जवाब देंहटाएं
  12. कुछ वीभत्स मानसिकता वाले लोगों के कारण हर किसी से नफरत लाजिमी नहीं ...
    बहुत खूबसूरत बात कही वंदना जी !

    जवाब देंहटाएं
  13. बहुत ही सुन्दर और सशक्त रचना......ऐसी सोच की अत्यंत आवश्यकता है........हैट्स ऑफ इस पोस्ट के लिए|

    जवाब देंहटाएं
  14. काश छलनी असली मिल जाये आपको जो कंकड़ पत्थर को अलग कर सके.

    जवाब देंहटाएं
  15. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

    जवाब देंहटाएं
  16. बहुत सार्थक पोस्ट...बहुत गहरे चितन से उपजी एक सत्य को उजागर करतीं पंक्तियाँ !

    जवाब देंहटाएं
  17. बहुत बेहतरीन ...हमारे ब्लोग पर आपका स्वागत है

    जवाब देंहटाएं

अपने विचारो से हमे अवगत कराये……………… …आपके विचार हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं ………………………शुक्रिया