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शनिवार, 8 सितंबर 2012

यादों की जंजीरों में जकड़े वजूदों की नज़रें नहीं उतरा करतीं

जब भी मेरी यादों की दुल्हन सँवरती है 

तो इन्हीं उलझनों मे उलझती है
 
क्या आज भी तू उसकी मांग में 

मेरे नाम का सिन्दूर भरता है 

क्या आज भी तू उसके गले में

कुछ काले मोती मेरी मोहब्बत के 

धागे में पिरोकर पहनाता है

क्या आज भी तेरे अक्स में


मेरा वो ही अक्स उभरता है


जिसमे तूने मुझे कैद कर रखा है


देख तो सही .......

..........
पिंजरे में बंद मैना का तड़पना


लगता है नहीं करोगे मुक्त कभी


तभी मेरे पंखों में इतनी


मिचलाहट हो रही है


दर्द तुझे होता है तो


पंख मेरा झड़ता है


ओह ! नहीं जानती थी ...

........
यादों की जंजीरों में जकड़े वजूदों की नज़रें नहीं उतरा करतीं

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कविता है मेरे अंतर मन को छू गयी। मेरे ब्लौग http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com पर आना।

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  2. यादों में जकड़ा वजूद मुक्त ही नहीं होता

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  3. यादों की जंजीरों में जकड़े वजूदों की नज़रें नहीं उतरा करतीं
    सुन्दर बात

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  4. यादों का कोई अस्तित्व नहीं होता...पर कितना दंश देती हैं यादें...

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  5. यादों में न जाने क्या क्या आ जाता है ... प्रवाहयुक्त प्रस्तुति

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  6. भावनाओं की लहरों में बहा ले जानेवाली नज़्म...मुबारक हो.

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  8. यादों के वज़ूद को भावों से सवांरा है.

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  9. अपनी यादों को जैसे याद करो ...वो उसी रूप में आपके सामने आ जाती है.....

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  10. यादों की इस जकडन से मुक्ति नहीं मिल पाती कभी ... गहरी यादें ...

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  11. यादें अमिट होती हैं उनका वजूद इंसान के चले जाने के बाद भी कायम रहता है
    बहुत बढ़िया चिंतनशील प्रस्तुति

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