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रविवार, 16 दिसंबर 2012

सब जानती हूँ ...........दिवास्वप्न है ये

इंतजार की हद पर ठहरा 
धूप का टुकड़ा 
देख कुम्हलाने लगा है
नमी का ना कोई बायस रहा है 
हवाओं में भी तेज़ाब घुला है 
ओट दी थी मैंने 
अपनी मोहब्बत के टीके की 
पर मोहब्बत ने भी अब 
करवट बदल ली 
ना सुबह का फेन बचा है
ना सांझ की कटोरी में 
कोई रेशा रुका है
कब तक आटे की गोलियां बनाती रहूँ
मछलियों को दाना डालती रहूँ 
सूखे तालाबों में मछलियों का होना
उनका दाना चुगना 
सब जानती हूँ ...........दिवास्वप्न है ये 
इंतज़ार के भरम सपनों की गोद में ही तो पलते हैं लोरियां सुनते हुए ...........

12 टिप्‍पणियां:

  1. ना नमी और उसपर तेजाबी हवा ..... गंधकाम्ल तो यूँ ही नमी सोखने के लिए हम रसायनशास्त्री प्रयोग करते हैं :) .... यानी जलने को विवश. कई दृश्य उभर आये आपकी इस रचना से.

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  2. इंतज़ार के भ्रम .... बहुत खूबी से बयान किया है दिवास्वप्न को

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  3. न जाने कौन सा ज़हर है इन फिज़ाओं में
    ख़ुद से भी ऐतबार.उठ गया है अब मेरा ........
    ...अकेला
    शुभकामनायें!

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  4. ...अंतर्व्यथा को शब्दों में व्यक्त करना भी एक कला है!

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  5. दिवास्वप्न है ये इंतज़ार के भरम
    सपनों की गोद में ही तो पलते हैं लोरियां सुनते हुए ...........

    ...मन की व्यथा का बहुत सशक्त चित्रण..

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  6. आस बची है,
    जी लेने की,
    प्यास बची है।

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  7. आन्तरिक भावनाएं फुट पड़ी है ... लिखने के एक नए सलीके के साथ.

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  8. फिर भी कितना सुहाना लगता है ये दिव्य-स्वप्न कभी कभी ...

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  9. waah...man ki vyatha ko shabdon men pirona koi aap se seekhe...ati uttam.

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