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रविवार, 6 जनवरी 2013

जरूरी तो नहीं ना हर बार धरा ही अवशोषित हो

गहन अन्धकार में
भीषण चीत्कार
एक शोर
अन्तस की खामोशी का
दिमाग की नसों पर
पडता गहरा दबाव
समझने बूझने की शक्ति ने भी
जवाब दे दिया हो
और कहने को कुछ ना बचा हो
बस भयंकर नीरवता सांय - सांय कर रही हो
कितना मुश्किल होता है उस वक्त
एक तपते रेगिस्तान में
उम्मीद का दरिया बहाने का ख्वाब दिखाना

बस गुजर रहा है हर मंज़र आज इसी दौर से

देखें अब और कौन सा खंजर बचा है उस ओर से
यूं तो दफ़नायी गयी हूँ हर बार देह के पिंजर में
इस बार निकली हूँ आतिशी कफ़न ओढ कर
जलूँगी  या जला दूँगी
दुनिया तुझे इस बार आग लगा दूँगी
जो आज है चिन्गारी
कल उसे ही ज्वालामुखी बना दूँगी
बस ना ले मेरे सब्र  का और इम्तिहान
बस ना कर मेरे जिस्म से और खिलवाड
क्योंकि
पैमाना अब भर चुका है
हद पार कर चुका है
बस इक ज़रा सा हवा का झोंका ही
वज़ूद तेरा मिटा देगा
इस बार अपना वार चला देगा
गर चाहे बचना तो इतना करना
मुझे मेरे गौरान्वित वजूद के साथ जीने देना

एक आह्वान …………खुद का ……खुद से ……खुद के लिये ………जीने की जिजिविषा के साथ…………


क्योंकि सफ़ेद पड चुकी नस्ली रंगत बदलने के लिये

कुछ तो आवेश की लाली जरूरी होती है
और इस बार मैने चुरा लिया है लाल रंग थोडा सा दिनकर के ताप से
जरूरी तो नहीं ना हर बार धरा ही अवशोषित हो
वाष्पीकरण की प्रक्रिया में कुछ शोषण सागर का भी होना जरूरी है …………ज़िन्दगी के लिये

8 टिप्‍पणियां:

  1. धरा बोलती भी है, भूकम्प और ज्वालामुखी के रूप में।

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  2. धरा के अवशोषित होने का भ्रम है ... अन्दर वह प्रवाहित है और दहक भी रही

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  3. धारा जब उद्वेलित होती है तो भयंकर तबाही लेकर आती है !!

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  4. आक्रोशित आलेख.......गहन भाव ..........सुन्दर प्रस्तुति।

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  5. एक नयी जिंदगी के लिए अवशेष ही तो जरुरी है

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