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मंगलवार, 4 जून 2013

ढूँढता हूँ शहर मैं जो बरसों पहले खो गया

ढूँढता हूँ शहर मैं जो बरसों पहले खो गया 
जाने किस सभ्यता में दफ़न कैसे हो गया 

जहाँ तिलिस्मों के बाज़ार में बिकती हों ख्वाहिशें 
उन ख्वाहिशों का कोई खरीदार कैसे हो गया 

इक अंगरखे के नकाब में निकलते हैं जो सड़कों पर 
पैरों की जूतियों का कोई तलबगार कैसे हो गया 

ये मौसमों की बदलती सीरत जो देखी हर तरफ 
जाने उन हवाओं का कोई पहरेदार कैसे हो गया 

वक्त की नुमाइशे जो क़त्ल भी किया करती थीं कभी 
जाने उन चौबारों पर आज ऐतबार कैसे हो गया 

15 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी
    अच्छी रचना
    सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !

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  2. आज ०४/०६/२०१३ को आपकी यह पोस्ट ब्लॉग बुलेटिन - काला दिवस पर लिंक की गयी हैं | आपके सुझावों का स्वागत है | धन्यवाद!

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  3. बेहद सुन्दर रचना वन्दना जी।

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  4. वक्त की नुमाइशे जो क़त्ल भी किया करती थीं कभी जाने उन चौबारों पर आज ऐतबार कैसे हो गया

    ...बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (05-06-2013) के "योगदान" चर्चा मंचःअंक-1266 पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. बहुत बढ़िया -सुन्दर प्रस्तुति !

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  7. ये मौसमों की बदलती सीरत जो देखी हर तरफ जाने उन हवाओं का कोई पहरेदार कैसे हो गया
    वक्त की नुमाइशे जो क़त्ल भी किया करती थीं कभी जाने उन चौबारों पर आज ऐतबार कैसे हो गया
    बहुत खूब...प्रभावशाली रचना...

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  8. बहुत ही सुन्दर रचना, प्रस्तुति का ढंग, प्रयोग किये गए शब्द और उनका प्रभाव सब अति उत्तम.

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  9. उस शहर को तो हम भी खोज रहे हैं ।

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